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प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र ३५९
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अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ (दाता) ने हम सबके लिए - (अविभक्त हो) दिया है। अतः आप सब इसका उपभोग करें और परस्पर विभाजन कर लें।"
ऐसा कहने पर यदि कोई शाक्यादि भिक्षु उस साधु से कहे कि- "आयुष्मन् श्रमण! आप ही इसे हम सबको बांट दें। (पहले तो वह साधु इसे टालने का प्रयत्न करे)। (विशेष कारणवश ऐसा करना पड़े तो, सब लोगों में) उस आहार का विभाजन करता हुआ वह साधु अपने लिए जल्दी-जल्दी अच्छा-अच्छा प्रचुर मात्रा में वर्णादिगुणों से युक्त सरस साग, स्वादिष्ट-स्वादिष्ट, मनोज्ञ-मनोज्ञ, स्निग्ध-स्निग्ध आहार और उनके लिए रूखा-सूखा आहार न रखे, अपितु उस आहार में अमूर्च्छित, अगृद्ध, निरपेक्ष एवं अनासक्त होकर सबके लिए एकदम समान विभाग करे।
यदि सम-विभाग करते हुए उस साधु को कोई शाक्यादि भिक्षु यों कहे कि-"आयुष्मन् श्रमण! आप विभाग मत करें। हम सब एकत्रित - (सम्मिलित) होकर यह आहार खा-पी लेंगे।"
(ऐसी विशेष परिस्थिति में) वह उन – पार्श्वस्थादि स्वतीर्थिकों के साथ आहार करता हुआ अपने लिए प्रचुर मात्रा में सुन्दर, सरस आदि आहार और दसरों के लिए रूखा-सखाः (ऐसी स्वार्थी-नीति न रखे); अपितु उस आहार में वह अमूर्च्छित, अगृद्ध, निरपेक्ष और अनासक्त होकर बिलकुल सम मात्रा में ही खाए-पिए।
वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के यहाँ प्रवेश करने से पूर्व यदि यह जाने कि वहाँ शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, ग्रामपिण्डोलक या अतिथि आदि पहले से प्रविष्ट हैं, तो यह देख वह उन्हें लाँघ कर उस गृहस्थ के घर में न तो प्रवेश करे और न ही दाता से आहारादि की याचना करे। परन्तु उन्हें देखकर वह एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर कोई न आए-जाए तथा न देखे, इस प्रकार से खड़ा रहे।
जब वह यह जान ले कि गृहस्थ ने श्रमणादि को आहार देने से इन्कार कर दिया है, अथवा उन्हें दे दिया है और वे उस घर से निपटा दिये गये हैं; तब संयमी साधु स्वयं उस गृहस्थ के घर मे प्रवेश करे, अथवा आहारादि की याचना करे।
विवेचन-दूसरे भिक्षाजीवियों के प्रति निर्ग्रन्थ भिक्षु की समभावी नीति- प्रस्तुत सूत्र में निर्ग्रन्थ भिक्षु की दूसरे भिक्षाचरों के साथ ५ परिस्थितियों में व्यवहार की समभावी नीतियो का निर्देश किया गया है -
(१) श्रमणादि पहले से गृहस्थ के यहाँ जमा हों तो वह उसके यहाँ प्रवेश न करे, बल्कि एकान्त स्थान में जाकर खड़ा हो जाए।
(२) यदि गृहस्थ वहाँ आकर सबके लिए इकट्ठी आहार-सामग्री देकर परस्पर बांट कर खाने का अनुरोध करे तो उसका हकदार स्वयं को ही न मान ले, अपितु निश्छल भाव से उन श्रमणादि को वह आहार सौंपकर उन्हें बाँट देने का अनुरोध करे।
(३) यदि वे वह कार्य निर्ग्रन्थ भिक्षु को ही सौंपें तो वह समभावपूर्वक वितरण करे।