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________________ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध पेहाए, अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंग-पणगदगमट्टिय-मक्कडासंताणगा, बहवे तत्थ समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा उवागता उवागमिस्संति, अच्चाइण्णा' वित्ती,णो पण्णस्स णिक्खमण-पवेसाए-णो पण्णस्स वायणपुच्छण-परियट्टणाऽणुप्पेह-धम्माणुयोगचिंताए। से एवं णच्चा तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडिं संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज गमणाए। से भिक्खू वा २ जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणेजा मंसादियं वा जावसंमेलं वा हीरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा अप्पपांणा जाव संताणगा, णो जत्थ बहवे समण-माहण जाव उवागमिस्संति, अप्पाइण्णा वित्ती, पणास्स णिक्खमण-पवेसाए, पण्णस्स वायणपुच्छण-परियट्टणा-ऽणुप्पेह-धम्माणुयोगचिंताए। सेवं णच्चा५ तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडिं संखडिपडियाए अभिसंधारेज गमणाए। ३४८. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करते समय भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि इस संखडि के प्रारम्भ में मांस पकाया जा रहा है या मत्स्य पकाया जा रहा है, अथवा संखडि के निमित्त मांस छीलकर सुखाया जा रहा है या मत्स्य छीलकर सुखाया जा रहा है; विवाहोत्तर काल में नववधू के प्रवेश के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, पितृगृह में वधू के पुनः प्रवेश के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, या मृतक-सम्बन्धी भोज हो रहा है, अथवा परिजनों के सम्मानार्थ भोज (गोठ) हो रहा है। ऐसी संखडियों (भोजों) से भिक्षाचरों को भोजन लाते हुए देखकर संयमशील भिक्षु को वहाँ भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वहाँ जाने में अनेक दोषों की सम्भावना है, जैसे कि , मार्ग में बहुत- से प्राणी, बहुत-सी हरियाली, बहुत-से ओसकण, बहुत पानी, बहुत-से-कीड़ीनगर, . पाँच वर्ण की— नीलण-फूलण (फूही) है, काई आदि निगोद के जीव हैं, सचित्तपानी से भीगी हुई मिट्टी है, मकड़ी के जाले हैं, उन सबकी विराधना होगी; (इसके अतिरिक्त) वहाँ बहुत-से शाक्यादि- श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक (भिखारी) आदि आए हुए हैं, आ रहे हैं तथा आएँगे, संखडिस्थल चरक आदि जनता की भीड़ से अत्यन्त घिरा हुआ है; इसलिए वहाँ प्राज्ञ साधु का निर्गमन-प्रवेश का व्यवहार उचित नहीं है; क्योंकि वहाँ (नृत्य, गीत एवं वाद्य होने से) प्राज्ञ भिक्षु की वाचना, पृच्छना, पर्यटना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथारूप स्वाध्याय प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। १. चूर्णिकार ने इसके स्थान पर इस प्रकार का पाठान्तर माना है—'बहवेसमण-माहणा उवागता उवागमिस्संति' -वहाँ बहुत से श्रमण-ब्राह्मण आ गए हैं, आएँगे। २. इसके बदले 'तत्थाइण्णा' पाठ मिलता है। अर्थ है - वहाँ संखडि की जगह जनाकीर्ण हो गयी है। चूर्णिकार 'अच्चाइण्णा' पाठ मानकर अर्थ करते हैं - 'अत्यर्थं आइण्ण अच्चाइणा' संखडि की भूमि अत्यन्त (खचाखच) भर गई है। ३. यहाँ जाव' शब्द से सू० ३४८ के पूर्वार्द्ध में पठित समग्र पाठ समझ लेना चाहिए। ४. जहाँ जाव' शब्द से सू० ३४८ के पूर्वार्द्ध में पठित सम्पूर्ण पाठ समझ लें। ५. चूर्णि में पाठान्तर है-'से एवं णच्चा'। अर्थ समान है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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