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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ।
आदि के कुल, राजा के मामा, भानजा आदि सम्बन्धियों के कुल, इन कुलों के घर से, बाहर या भीतर जाते हुए,खड़े हुए या बैठे हुए , निमन्त्रण किये जाने या न किए जाने पर , वहाँ से प्राप्त होने वाले अशनादि आहार को ग्रहण न करे।
विवेचन-किन कुलों से आहारग्रहण निषिद्ध - पहले उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय आदि कुलों से प्रासुक एवं एषणीय आहार लेने का विधान किया गया था, अब इस सूत्र में क्षत्रिय आदि कुछ कुलों से आहार लेने का सर्वथा निषेध किया गया है, इसका क्या कारण है? वृत्तिकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं -
___ 'एतेषां कुलेषु संपातभयान प्रवेष्टव्यम्' – इन घरों में सम्पात – भीड़ में गिर जाने या निरर्थक असत्यभाषण के भय के कारण प्रवेश नहीं करना चाहिए।
वस्तुतः प्राचीन काल में राजाओं के अन्तःपुर में तथा रजवाड़ों में राजकीय उथल-पुथल बहुत होती थी। कई गुप्तचर भिक्षु के वेष में राज दरबार में, अन्त:पुर तक में घुस जाते थे। अतः साधुओं को गुप्तचर समझकर उन्हें आहार के साथ विष दे दिया जाता होगा; इसलिए यह प्रतिबन्ध लगाया गया होगा। बहुत संभव है कुछ राजा और राजवंश के लोग भिक्षुओं के साथ असद् व्यवहार करते होंगे। अथवा उनके यहाँ का आहार संयम की साधना में विघ्नकर होता होगा। १
__'खत्तियाण' आदि पदों का अर्थ- खत्तियाण - क्षत्रियों का चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि, राईण- राजन्यों का जो क्षत्रियों से भिन्न होते हैं । कुराईण वा— कुराजाओं का, सरहद के छोटे राजाओं का। राजवंसट्ठियाण वा- राजवंश में स्थित राजा के मामा, भानजा आदि रिश्तेदारों के कुलों से। २
[ ३४७. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं।]
३४७. [यह (आहार-गवेषणा) उस सुविहित भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता-भिक्षुभाव की सम्पूर्णता है। २]
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
१. टीका पत्रांक ३३३ २. टीका पत्रांक ३३३ ३. इसका विवेचन प्रथम उद्देशक में किया जा चुका है, यह पाठ सिर्फ
चूर्णि में उद्धृत है, मूल पाठ में नहीं मिलता है।