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प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ३३८
विविध रीतियों से संस्कार किया जाता है, इसलिए भी इसे 'संस्कृति' (संखडि) कहा जाता होगा। वर्तमान – युगभाषा में इसे 'बृहद्भोज' (जिसमें प्रीतिभोज आदि भी समाविष्ट है) कहते हैं। राजस्थान में इसे 'जीमनवार' कहते हैं। इसे दावत या गोठ भी कहते हैं।
__ संखडि में जाने का निषेध और उपेक्षाभाव क्यों? - संखडि में जाने से निम्नोक्त दोष लगने की सम्भावना है
(१) जिह्वालोलुपता । (२) स्वादलोलुपतावश अत्यधिक आहार लाने का लोभ । (३) अति मात्रा में स्वादिष्ट भोजन करने से स्वास्थ्यहानि, प्रमाद-वृद्धि, स्वाध्याय का क्रमभंग। (४) जनता की भीड़ में धक्का-मुक्की , स्त्रीसंघट्टा (स्पर्श) एवं मुनिवेश की अवहेलना। (५) जनता में साधु के प्रति अश्रद्धा भाव बढ़ने की सम्भावना आदि।
श्रद्धालु गृहस्थ को पता लग जाने पर कि अमुक साधु यहाँ प्रीतिभोज के अवसर पर पधार रहे हैं, मुझे उन्हें किसी भी मूल्य पर आहार देना है, यह सोचकर वह उनके उद्देश्य से खाद्य सामग्री तैयार कराएगा, खरीद कर लाएगा, उधार लाएगा। किसी से जबरन छीनकर लाएगा, दूसरे की चीज को अपने कब्जे में करके देगा, घर से सामान तैयार कराकर साधु के वासस्थान पर लाकर देगा; इत्यादि अनेक दोषों की पूरी सम्भावना रहती है।
इसके सिवाय कई बृहत् भोज पूरे दिन-रात या दो-तीन दिन तक चलते हैं, इसलिए गृहस्थ अपने पूज्य साधु को उसमें पधारने के लिये आग्रह करता है, अथवा गृहस्थ को पता लग जाता है कि पूज्य साधु पधारने वाले हैं तो वह उनके ठहरने के लिए अलग से प्रबन्ध करेगा, ताकि वह स्थान गृहस्थ स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क से रहित, विविक्त एवं साधु के निवास योग्य बन जाए। इसके लिए वह गृहस्थ उस मकान को विविध-प्रकार से तुड़ा-फुड़ा कर मरम्मत करायेगा, रंग-रोगन करवाएगा, वहाँ फर्श पर उगी हुई हरी घास आदि को उखड़वा कर उसको संस्कारित कराएगा, सजाएगा, इन दोषों का उल्लेख मूलपाठ में किया गया है। जिस संखडि में जाने के पीछे इतने दोषों की संभावना हो, उस संखडि में सुविहित साधु कैसे जा सकता है? इसीलिए कहा गया है - 'केवलीबूया-आयाणमेयं' केवलज्ञानी भगवान् कहते हैं- यह (-संखडि में गमन) आदान - कर्मबंध का कारण (आस्रव) है, अथवा दोषों का आयतन - स्थान है।
यही कारण है कि साधु के लिए ऐसे बृहद्भोजों को टालने और उसके प्रति उपेक्षा बताकर उस स्थान से विपरीत दिशा में विहार कर देने तथा आधे योजन-दो कोस तक में भी कहीं ऐसे विशेष भोज का नाम सुनते ही साधु को उधर जाने का विचार बदल देने का विधान है। कारण यह है कि अगर वह उधर जाएगा या संखडिस्थल के पास से होकर निकलेगा तो बहुत संभव है, भावुक गृहस्थ उस साधु को अत्याग्रह करके संखडि में ले जाएगा और तब वे ही पूर्वोक्त दोष लगने की संभावना होगी, इसलिए दूर से ऐसे बृहत्भोजों से बचने का निर्देश किया गया है। १. टीका पत्र ० ३२८-३२१ के आधार पर