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________________ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध जीमनवार- बृहत्भोज ) हो रही है, यह जानकर संखडि में निष्पन्न आहार लेने के निमित्त जाने का विचार न करे। यदि भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि पूर्व दिशा में संखड़ि हो रही है, तो वह उसके प्रति अनादर (उपेक्षा) भाव रखते हुए पश्चिम दिशा को चला जाए। यदि पश्चिम दिशा में संखडि जाने तो उसके प्रति अनादर भाव से पूर्व दिशा में चला जाए। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में संखडि जाने तो उसके प्रति अनादरभाव रखकर उत्तर दिशा में चला जाए और उत्तर दिशा में संखडि होती जाने तो उसके प्रति अनादर बताता हुए दक्षिण दिशा में चला जाए। संखडि (बृहत् भोज) जहाँ भी हो, जैसे कि गाँव में हो, नगर में हो, खेड़े में हो, कुनगर में हो, मडंब में हो, पट्टन में हो, द्रोणमुख (बन्दरगाह) में हो, आकर- (खान) में हो, आश्रम में हो, सन्निवेश(मोहल्ले) में हो, यावत् (यहाँ तक कि) राजधानी में हो, इनमें से कहीं भी संखडि जाने तो संखडि (से स्वादिष्ट आहार लाने) के निमित्त मन में संकल्प (प्रतिज्ञा) लेकर न जाए। केवलज्ञानी भगवान् कहते हैं- यह कर्मबन्धन का स्थान – कारण है। संखडि में संखडि (— में निष्पन्न बढ़िया भोजन लाने ) के संकल्प से जाने वाले भिक्षु को आधाकर्मिक, औदेशिक, मिश्रजात, क्रीतकृत, प्रामित्य, बलात् छीना हुआ, दूसरे के स्वामित्व का पदार्थ उसकी अनुमति के बिना लिया हुआ या सम्मुख लाकर दिया हुआ आंहार सेवन करना होगा। क्योंकि कोई भावुक गृहस्थ (असंयत) भिक्षु के संखडि में पधारने की सम्भावना से छोटे द्वार को बड़ा बनाएगा, बड़े द्वार को छोटा बनाएगा, विषम वासस्थान को सम बनाएगा तथा सम वासस्थान को विषम बनाएगा। इसी प्रकार अधिक वातयुक्त वासस्थान को निर्वात बनाएगा या निर्वात वासस्थान को अधिक वातयुक्त (हवादार) बनाएगा। वह भिक्षु के निवास के लिए उपाश्रय के अन्दर और बाहर (उगी हुई ) हरियाली को काटेगा, उसे जड़ से उखाड़ कर वहाँ संस्तारक (आसन) बिछाएगा। इस प्रकार (वासस्थान के आरम्भयुक्त संस्कार की सम्भावना के कारण ) संखडि में जाने को भगवान् ने मिश्रजात दोष बताया है। इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ इस प्रकार नामकरण विवाह आदि के उपलक्ष्य में होने वाली पूर्वसंखडि (प्रीतिभोज) अथवा मृतक के पीछे की जाने वाली पश्चात्-संखडि (मतक-भोज) को (अनेक दोषयुक्त) संखडि जान कर संखडि (- में निष्पन्न आहार-लाभ) की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करे। विवेचन- संखडि की परिभाषा- 'संखडि' एक पारिभाषिक शब्द है। "संखण्ड्यन्तेविराध्यन्ते प्राणिनो यत्र सा संखडिः, ''जिसमें आरम्भ-समारम्भ के कारण प्राणियों की विराधना होती है, उसे संखडि कहते हैं, यह उसकी व्युत्पत्ति है। १ भोज आदि में अन्न का १. (क) आचा०टीका पत्र ३२८ (ख) इसी प्रकार का अर्थ दशवै०७।३६ की जिनदासचूर्णि पृ० २५७ तथा हारिभद्रीय टीका पृ० २१९ पर किया गया है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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