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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
जैनाचार्यों ने सम्पन्नता-असम्पन्नतापरक अर्थ ही किया है। अगर उच्च-नीच या किसी प्रकार का भेदभाव आहार ग्रहण करने के विषय में करना होता तो शास्त्रकार मूलपाठ में नापित, बढ़ई, तन्तुवाय(जुलाहे) आदि के घरों से आहार लेने का विधान न करते तथा उग्र आदि जिन कुलों का उल्लेख किया है, उनमें से बहुत-से वंश तो आज लुप्त हो चुके हैं, क्षत्रियों में भी हूण, शक, यवन आदि वंश के लोग मिल चुके हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने अन्त में यह कह दिया कि इस प्रकार के किसी भी लौकिक जाति या वंश के घर हों; उनसे साधु भिक्षा ग्रहण कर सकता है, बशर्ते कि वह घर निन्दित और घृणित न हो।२।
__ जुगुप्सित और गर्हित घर – जुगुप्सा या घृणा उन घरों में होती है, जहाँ खुले आम मांस-मछली आदि पकाये जाते हों, मांस के टुकड़े, हड्डियाँ, चमड़ा आदि पड़ा हो, पशुओं या मछलियों आदि का वध किया जाता हो, जिनके यहाँ बर्तनों में मांस पकता हो, अथवा जिनके बर्तन, घर, आंगन, कपड़े,शरीर आदि अस्वच्छ हों, स्वच्छता के कोई संस्कार जिन घरों में न हों, ऐसे घर, चाहे वे क्षत्रियों या मूलपाठ में बताए गए किसी जाति, वंश के ही क्यों न हों, वे जुगुप्सित और घृणित होने के कारण त्याज्य समझने चाहिए और गर्हित-निन्द्य घर वे हैं – जहाँ सरे आम व्यभिचार होता हो, वेश्यालय हों, मदिरालय हो, कसाइखाना हो, जिनके आचरण गंदे हों, जो हिंसादि पापकर्म में ही रत हों, ऐसे घर भी शास्त्र में परिगणित जातियों के ही क्यों न हों, भिक्षा के लिए त्याज्य हैं । जुगुप्सित और निन्दित लोगों के घरों में भिक्षा के लिए जाने से भिक्षु को स्वयं घृणा पैदा होगी, संसर्ग से बुद्धि मलिन होगी, आचार-विचार पर भी प्रभाव पड़ना सम्भव है, लोक-निन्दा भी होगी, आहार की शुद्धि भी न रहेगी और धर्मसंघ की बदनामी भी होगी। .
वृत्तिकार ने अपने युग की छाया में 'अदुगुंछिएसु अगरहिएसु' इन दो पदों का अर्थ इस प्रकार किया है- जुगुप्सित यानी चर्मकार आदि के कुल तथा गर्हित यानी दास्य आदि के कुल। परन्तु शास्त्रकार की ये दोनों शर्ते शास्त्र में परिगणित प्रत्येक जाति-वंश के घर के साथ हैं। ३
उग्गकुलाणि आदि पदों के अर्थ-वृत्तिकार के अनुसार-कुल शब्द का अर्थ यहाँ घर समझना चाहिए, वंश या जाति नहीं। क्योंकि आहार घरों में मिलता है, जाति या वंश में नहीं। १. (क) प्रासाद हवेली आदि उच्चभवन द्रव्य से उच्च कुल हैं, जाति, विद्या आदि से समृद्ध व्यक्तियों के भवन
भावत: उच्चकुल हैं। तृण, कुटी झोंपड़ी आदेि द्रव्यत: नीच कुल हैं, जाति, धन, विद्या आदि से हीन व्यक्तियों के घर भावतः नीच कुल हैं। - दशवैकालिक सूत्र ५/१४ पर हारिभद्रीय टीका पृ० १६६ (ख) नीच कुल को छोड़कर उच्च कुल में भिक्षा करने वाला भिक्षु जातिवाद को बढ़ावा देता हैजातिवाओ य उववूहिओ भवति। - दशवैकालिक सू० अ० ५ उ० २ गा० २५ तथा उस पर जिनदासचूर्णि एवं हारिभद्रीय टीका पृ०
१९८-१९९। २. आचारांग मूलपाठ के आधार पर पृ० १०९ ३. टीका पत्र ३२७ के आधार पर ४. दशवैकालिक चूर्णि में भी यही अर्थ मिलता है 'कुलं सबंधि-समवातो, तदालयो वा-सम्बन्धियों का
समवाय या घर-कुल कहा जाता है - अगस्त्यसिंह चूर्णि पृ०५०३ (५/१४)