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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
८००. तहा विमुक्कस्स परिणचारिणो, धितीमतो दुक्खखमस्स भिक्खुणो।
विसुज्झती जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोतिणा॥१४२॥ ७९६. परिषहोपसर्गों को सहन करता हुआ अथवा माध्यस्थभाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि अहिंसादि प्रयोग में कुशल-गीतार्थ मुनियों के साथ रहे। त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है। अत: उन्हें दुःखी देखकर, किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भाँति सब प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि त्रिजगत्-स्वभाववेत्ता होता है। इसी कारण उसे सुश्रमण कहा गया है।
७९७. क्षमा-मार्दव आदि दशविध अनुत्तर (श्रेष्ठ) श्रमणधर्मपद में प्रवृत्ति करने वाला जो विद्वान्–कालज्ञ एवं विनीत मुनि होता है, उस तृष्णारहित, धर्मध्यान में संलग्न समाहित–चारित्र पालन में सावधान मुनि के तप, प्रज्ञा और यश अग्निशिखा के तेज की भाँति निरंतर बढ़ते रहते हैं।
७९८. षट्काय के त्राता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न राग-द्वेष विजेता, जिनेन्द्र भगवान् से सभी एकेन्द्रियादि भावदिशाओं में रहने वाले जीवों के लिए क्षेम (रक्षण) स्थान महाव्रत प्रतिपादित किये हैं। अनादिकाल से आबद्ध कर्म-बन्धन से दूर करने में समर्थ महान् गुरु- महाव्रतों का उनके लिए निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं (उर्ध्व, अधो एवं तिर्यक्) के अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज भी अन्धकाररूप कर्मसमूह को नष्ट करके (ज्ञानवान आत्मा तीनों लोकों में) प्रकाशक बन जाता है।
७९९. भिक्षु कर्म या रागादि निबन्धनजनक गृहपाश से बंधे हुए गृहस्थों या अन्यतीर्थिकों के साथ आबद्ध–संसर्गरहित होकर संयम में विचरण करे तथा स्त्रियों के संग का त्याग करके पूजा-सत्कार आदि लालसा छोड़े। साथ ही वह इहलोक तथा परलोक में अनिश्रित-निस्पृह होकर रहे । कामभोगों के कटुविपाक का देखने वाला पण्डित मुनि मनोज्ञ-शब्दादि काम-गुणों को स्वीकार न करे।
८००. तथा (मूलोत्तर-गुणधारी होने से) सर्वसंगविमुक्त, परिज्ञा (ज्ञानपूर्वक-) आचरण करने वाले, धृतिमान-दुःखों को सम्यक्प्रकार से सहन करने में समर्थ, भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध (क्षय) हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि द्वारा चांदी का मैल अलग हो जाता है।
विवेचन- सूत्र ७९६ से ८०० तक पांच गाथाओं में शास्त्रकार ने कर्ममल से विमुक्त होने की दिशा में साधु को क्या-क्या करना चाहिए, इसकी सुन्दर प्रेरणा रजतमल-शुद्धि आदि दृष्टान्त प्रस्तुत करके दी है। इसके लिए पाँच कर्त्तव्य निर्देश इस प्रकार किए गए हैं
(१) पृथ्वी की तरह सब कुछ सहने वाला मुनि दुःखाक्रान्त त्रस स्थर जीवों की हिंसा से दूर रहे।