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________________ सोलहवाँ अध्ययन : सूत्र ७९६-८०० ४२५ तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिते' की व्याख्या-वृतिकार एवं चूर्णिकार के अनुसार—जैसे कोली, चमार, असंस्कारी, दिल के काले, दरिद्र अनार्यप्रायः तथाप्रकार के बालजनों के द्वारा निन्दित या व्यथित होने पर। _ 'ससद्दफासा फरूसा उदीरिता'–उन बालजनों द्वारा अत्यन्त प्रबलता से किये गए या प्रेरित कठोर या तीव्र, अथवा अमनोज्ञ सशब्द-प्रहारों के स्पर्शों या आक्रोशसहित शीतोष्णादि दुःखोत्पादक कठोरता से किये गए, या प्रेरित प्रहारों के स्पर्शों को। तितिक्खए णाणि– अदुदुचेतसा— उन प्रहारों को आत्मज्ञानी मुनि मन को द्वेषभाव आदि से दूषित किए बिना अकलुषित अन्त:करण से सहन करें। क्योंकि वह ज्ञानी है, यह मेरे ही पूर्वकृत कर्मों का फल है, यह मानकर अथवा संयम के दर्शन से, या वैराग्य भावना से या इस तत्त्वार्थ के विचार से वह सहन करे कि "आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या। यदि सत्यं कः कोप: स्यादनृतं किं नु कोपेन? ॥" बुद्धिमान पुरुष को आक्रोश का प्रसंग आने पर तत्त्वार्थ विचार में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए। "यदि किसी का कथन सत्य है तो उसके लिए कैसा कोप? और यदि बात असत्य है तो क्रोध से क्या मतलब ?" इस प्रकार ज्ञानी साधक मन से भी उन अनार्यों पर द्वेष न करे, वचन और कर्म से तो करने का प्रश्न ही नहीं है। गिरिव्व वातेण ण संपवेवए- जिस प्रकार प्रबल झंझावात से पर्वत कम्पायमान नहीं होता, उसी प्रकार विचारशील साधक इन परीषहोपसर्गों से बिलकुल विचलित न हो।' रजत-शुद्धि का दृष्टान्त व कर्ममल शुद्धि की प्रेरणा ७९६. उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खा' तस-थावरा दुही। अलूसए सव्वमहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिते॥१३८॥ ७९७. विदू णते धम्मपयं अणुत्तरं, विणीततोहस्स मुणिस्स झायतो। समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पण्णा य जसो य वड्ढती॥१३९।। ७९८. दिसोदिसिंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वता खेमपदा पवेदिता। महागुरु निस्सयरा उदीरिता, तमं व तेऊ तिदिसं पगासगा॥१४०॥ ७९९. सितेहिं भिक्खू असिते परिव्वए, असज्जमित्थीसुचएज्ज पूयणं। अणिस्सिए लोगमिणं तहा परं, ण मिजति कामगुणेहिं पंडिते॥१४१॥ १. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४२९ (ख) आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. पृ. २९५ २. अकंतदुक्खा के बदले पाठान्तर हैं-अकंतदुक्खी, अक्कंतदुक्खी। ३. वड्ढती के बदले वट्टती पाठान्तर है। ४. तेऊ तिदिसं के बदले पाठान्तर हैं—तेऊ त्ति; तेजो ति।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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