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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
विवेचन-नित्यपिण्ड प्रदाता कुलों में प्रवेश निषेध- इस सूत्र में साधु-साध्वियों के लिए उन पुण्याभिलाषी दानशील भद्र लोगों के यहाँ जाने-आने का निषेध किया है, जिन कुलों में पुण्य-लाभ समझ कर श्रमण, ब्राह्मण, याचक आदि हर प्रकार के भिक्षाचर के लिए प्रतिदिन पूरा (उसकी आवश्यकता की दृष्टि से) आधा या चौथाई भाग आहार दिया जाता है; जहाँ हर तरह के भिक्षाचर आहार लेने आते-जाते रहते हैं। ऐसे नित्यपिण्ड प्रदायी कुलों में जब निर्ग्रन्थ भिक्षु-भिक्षुणी जायें और आहार लेने लगेंगे तो वह गृहस्थ उनके निमित्त अधिक भोजन बनवाएगा अथवा जैन भिक्षु वर्ग को देने के बाद थोड़ा-सा बचेगा, उन लोगों को नहीं मिल सकेगा, जो प्रतिदिन वहाँ से भोजन ले जाते हैं, अत: उन्हें अन्तराय लगेगा और आहार लाभ से वंचित भिक्षाचरों के मन में जैन साधु-साध्वियों के प्रति द्वेष जगेगा। __कुल का अर्थ यहाँ विशिष्ट गृह समझना चाहिए। ऐसे कुलों से आहार ग्रहण का निषेध करने की अपेक्षा उनमें प्रवेश-निर्गमन का निषेध इसलिए किया गया कि उन घरों में साधु प्रवेश करेगा, या उन घरों के पास से होकर निकलेगा तो गृहपति उस साधु को भिक्षा-ग्रहण करने की प्रार्थना करेगा, उसकी प्रार्थना को साधु ठुकरा देगा या उसके द्वारा बनाए हुए आहार की निन्दा करेगा तो उस भद्र भावुकं गृहस्थ के मन में दुःख या क्षोभ उत्पन्न हो सकता है। उसकी दान देने की भावना को ठेस पहुँच सकती है।
. नित्य अग्रपिण्ड का अर्थ वृत्तिकार ने किया है – 'भात, दाल आदि जो भी आहार बना है, उसमें से पहले पहल भिक्षार्थ देने के लिए जो आहार निकाल कर रख लिया जाता है।' चूर्णिकार इसे 'अग्रभिक्षा' कहते हैं। २
'भाए' का अर्थ वृत्तिकार करते हैं - 'अर्ध पोष' यानी प्रत्येक व्यक्ति के पोषण के लिए पर्याप्त आहार का आधा हिस्सा, चूर्णिकार इसका अर्थ 'भात' करते हैं, भत्तट्ठ भोजन के पदार्थ यानी पूरा भोजन ।३
अवड्डभाए का अर्थ वृत्तिकार करते हैं - उपार्द्धभाग यानी पोष- (पोषण-पर्याप्त आहार) का चौथा भाग । चूर्णिकार अर्थ करते हैं - 'अद्धभत्त?' अर्थात् आधा भात ४ ; भोजन का आधा भाग ।
निइउमाणाई की व्याख्या वृत्तिकार यों करते हैं - जिन कुलों में नित्य 'उमाणं' यानि स्व-पर-पक्षीय भिक्षाचरों का प्रवेश होता है, वे कुल। तात्पर्य यह है कि उन घरों से प्रतिदिन आहार मिलने के कारण उनमें स्वपक्ष – अपना मनोनीत साधु वर्ग तथा परपक्ष - अन्य भिक्षाचर वर्ग, सभी भिक्षा के लिए प्रवेश करते हैं। ऐसी स्थिति में उन गृहपतियों को बहुत-से भिक्षाचरों को १. टीका पत्रांक ३२६ २. (क) टीका पत्र ३२६ (ख) चूर्णि मूल पाठ टि० पृ० १०८
(ग) दशवैकालिक ६।२ में 'नियाग' शब्द भी नित्य अग्रपिण्ड का सूचक है। ३. (क) टीका पत्र ३२६ (ख) चूर्णि मू० पा० टि० पृ० १०८ ४. (क) टीका पत्र ३२६ (ख) चूर्णि मू० पा० टि० पृ० १०८