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________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ३३३ अर्थ उत्तराध्ययनसूत्र में पिण्डोलक किया है, जो परदत्तोपजीवि पर-दत्त आहार से जीवन-निर्वाह करने वाला हो। १ 'समारब्भ' का अर्थ है – समारम्भ करके । मध्य के ग्रहण से आदि और अन्त का ग्रहण हो जाता है, वृत्तिकार ने इस न्याय से आदि और अन्त के पद - संरम्भ और आरम्भ का भी ग्रहण करना सूचित किया है। ये तीनों ही हिंसा के क्रम हैं - संरम्भ में संकल्प होता है, समारम्भ में सामग्री एकत्र की जाती है, जीवों को परिताप दिया जाता है और आरम्भ में जीव का वध आदि किया जाता है। समुद्दिस्स कीयं आदि पदों के अर्थ-किसी एक या अनेक साधर्मिक साधु या साध्वी को उद्देश्य करके बनाया गया आहार समुद्दिष्ट है, कीय = खरीदा हुआ, पामिच्च = उधार लिया हुआ, अच्छिज्ज = बलात् छीना हुआ, अणिसटुं = उसके स्वामी की अनुमति लिए बिना, अभिहडं = घर से साधु-स्थान पर लाया हुआ, अत्तट्टियं =अपने द्वारा अधिकृत । ३ नित्याग्र पिण्डादि ग्रहण-निषेध ३३३. से भिक्खू वा २ गाहावतिकुलं पिडवायपडियाए पविसित्तुकामे से ज्जाई पुण कुलाइं जाणेज्जा-इमेसु खलु कुलेसु णितिए पिंडे दिजति, णितिए अग्गपिंडे ४ दिज्जति, णितिए भाए ५ दिज्जति, णितिए अवड्डभाए दिजति, तहप्पगाराई कुलाई णितियाई णितिउमाणाई ६ णो भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज वा.णिक्खमेज वा । ३३३. गृहस्थ के घर में आहार-प्राप्ति की अपेक्षा से प्रवेश करने के इच्छुक साधु या साध्वी ऐसे कुलों (घरों) को जान लें कि इन कुलों में नित्यपिण्ड (आहार) दिया जाता है, नित्य अग्रपिण्ड दिया जाता है, प्रतिदिन भात (आधा भाग) दिया जाता है, प्रतिदिन उपार्द्ध भाग (चौथा हिस्सा) दिया जाता है। इस प्रकार के कुल, जो नित्य दान देते हैं, जिनमें प्रतिदिन भिक्षाचरों का प्रवेश होता है, ऐसे कुलों में आहार-पानी के लिए साधु-साध्वी प्रवेश एवं निर्गमन न करें। १. (क) आचा० टीका पत्र ३२५ (ख) दशवै० हारि० वृत्ति अ०५।१। ५१,५।२।१० (ग) स्थानांग स्था०५ पत्र २०० (घ) पिंडोलए व दुस्सीले - उत्त० ५। २२ २. आचा० टीका पत्र ३२५ ३. आचा० टीका पत्र ३२५ ४. 'अग्गपिण्डे' के स्थान पर 'अग्गपिण्डो' शब्द मानकर चूर्णिकार अर्थ करते है- 'अग्गपिण्डो अग्गभिक्खा अर्थात् अग्रपिण्ड है- सर्वप्रथम अलग निकाल कर भिक्षाचरों के लिए रखी हुई भिक्षा । 'भाए दिजति,णितिए अवडभाए दिजति'शब्दों की व्याख्या चर्णिकार ने इस प्रकार की है- 'भाओभत्तहो अवड्डभातो अद्धभत्तट्टो, तस्सद्धं उवद्धभातो।' भात शब्द का अर्थ है- भक्तार्थ यानि भोजन योग्य पदार्थ। अपार्धभात का अर्थ है- अर्द्धभक्तार्थ यानि उसका आधा भाग उपार्द्धभात (भक्त) होता है। ६. णितिउमाणाइं के स्थान पर कहीं नियोमाणाई एवं कहीं निइउमाणाई पाठ मिलता है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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