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________________ ३९६ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध वीतिकंता, तेरसमस्स य वासस्स परियाए वट्ठमाणस्स जे से गिम्हाणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे वेसाहसुद्धे तस्स णं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं सुव्वतेणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तराहिं नक्खतेणं जोगोवगत्तेण पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरुसीए जंभियगामस्स णगरस्स बहिया णदीए उज्जुवालियाए उत्तरे कूले सामागस्स गाहावतिस्स कट्ठकरणंसि वियावत्तस्स चेतियस्स उत्तरपुरथिमे दिसाभागे सासरुक्खस्स अदूरसामंते अक्कुडुयस्स गोदोहियाए आयावणाए आतावेमाणस्स छटेणं भत्तेणं अपाणएणं उड्ढे जाणुं अहो सिरस धम्मज्झाणोवगतस्स झाणकोट्ठोवगतस्स सुक्कज्झाणंतरियाए, वट्ठमाणस्स णेव्वाणे कसिणे पडिपुण्णे अव्वाहते णिरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरणाण-दसणे समुप्पण्णे। ७७३. से भगवं अरहा जिणे जाणए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी सदेव-मणुयाऽसुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणती, तंजहा—आगती गती ठिती चयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवितं आविकम्मं रहोकम्मं लवियं कथितं मणोमाणसियं सव्वलोए, सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे एवं चाते विहरति। ७७४. जं णं दिवसं समणस्स भगवतो महावीरस्स णेव्वाणे कसिणे जाव समुप्पन्ने तं णं दिवसं भवणवइ-वाणमंतर-जोतिसिय-विमाणवासिदेवेहिं य देवीहिं य ओवयंतेहिं १ य जाव उप्पिंजलगभूते यावि होत्था। ७७२. उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को इस प्रकार से विचरण करते हुए बारह. वर्ष व्यतीत हो गए, तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु में दूसरे मास और चौथे पक्ष से अर्थात् वैशाख सुदी में, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन, सुव्रत नामक दिवस में विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर, पूर्वगामिनी छाया होने पर दिन के दूसरे (पिछले) पहर में जृम्भकग्राम नामक नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर तट पर श्यामाक गृहपति के काष्ठकरण नामक क्षेत्र में वैयावृत्य नामक चैत्य (उद्यान) के ईशानकोण में शालवृक्ष से न अति दूर, न अति निकट, उत्कटुक (उकडू) होकर गोदोहासन से सूर्य की आतापना लेते हुए, निर्जल षष्ठभक्त (प्रत्याख्यान) तप से युक्त, ऊपर घुटने और नीचा सिर करके धर्मध्यान में युक्त, ध्यानकोष्ठ में प्रविष्ट हुए भगवान् जब शुक्लध्यानान्तरिका में अर्थात् लगातार शुक्लध्यान के मध्य में प्रवर्तमान थे, तभी उन्हें अज्ञान दुःख से निवृत्ति दिलाने वाले, सम्पूर्ण प्रतिपूर्ण अव्याहत निरावरण अनन्त अनुत्तर श्रेष्ठ केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुए। ७७३. वे अब भगवान् अर्हत, जिन, ज्ञायक, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी हो गए। अब वे देवों, मनुष्यों, और असुरों सहित समस्त लोक के पर्यायों को जानने लगे। जैसे कि जीवों की आगति, १. 'ओवयंतेहि' के बदले 'उवतंतेहिं' 'उवयंतेहिं' पाठान्तर हैं।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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