________________
३९२
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सब समुत्पन्न उपसर्गों को मैं सम्यक् प्रकार से या समभाव से सहूँगा, क्षमाभाव रलूँगा, शान्ति से झेलूंगा।"
विवेचन- मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि और अभिग्रहधारण- प्रस्तुत सूत्र में मुख्यतया दो बातों का उल्लेख किया गया है- भगवान् को दीक्षा लेते ही मनःपर्यायज्ञान की उपलब्धि और १२ वर्ष तक अपने शरीर के प्रति ममत्वविसर्जन का अभिग्रह । दीक्षा अंगीकार करते ही भगवान् एकाकी पर-सहाय मुक्त होकर सामायिक साधना की दृष्टि से अपने आपको कसना चाहते थे, इसलिए उन्होंने गृहस्थपक्ष के सभी स्वजनों को तुरंत विदा कर दिया। स्वयं एकाकी, निःस्पृह, पाणिपात्र, एवं निरपेक्ष होकर विचरण करने हेतु देह के प्रति ममत्वत्याग और उपसर्गों को समभाव से सहने का उन्होंने संकल्प कर लिया।
'वोसट्ठकाए' एवं 'चत्तदेहे' पद में अन्तर- यहाँ शास्त्रकार ने समानार्थक-से दो पदों का प्रयोग किया है, परन्तु गहराई से देखा जाए तो इन दोनों के अर्थ में अन्तर है। वोसट्टकाए का संस्कृतरूपान्तर होता है-व्युत्सृष्टकाय- इसके प्राकृतशब्दकोश में मुख्य तीन अर्थ मिलते हैं - १. देह को परित्यक्त कर देना, २. परिष्कार रहित रखना या, ३. कायोत्सर्ग में स्थित रखना। पहला अर्थ यहाँ ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि चत्तदेहे (त्यक्तदेहः) का भी वही अर्थ होता है। अत: 'वोसट्ठकाए' पिछले दो अर्थ ही यहाँ सार्थक प्रतीत होते हैं। शरीर को परिष्कार करने का अर्थ है—शरीर को साफ करना, नहलाना-धुलाना, तैलादिमर्दन करना या चंदनादि लेप करना, वस्त्राभूषण से सुसज्जित करना या सरस स्वादिष्ट आर आदि से शरीर को पुष्ट करना, औषधि आदि लेकर शरीर को स्वस्थ रखने का उपाय करना आदि। इस प्रकार शरीर का परिकर्म-परिष्कार न करना, शरीर को परिष्कार रहित रखना है, तथा शरीर का भान भूलकर, काया या मन से उत्सर्ग करके एकमात्र आत्मगुणों में लीन रहना ही कायोत्सर्गस्थित रहना है।
'चत्तदेहे' का जो अर्थ किया गया है, उसका भावार्थ है- शरीर के प्रति ममत्व या आसक्ति का त्याग करना । इसका तात्पर्य यह है कि शरीर को उपसर्गादि से बचाने , उसे पुष्ट व स्वस्थ रखने के लिए जो ममत्व है, या 'मेरा शरीर' यह जो देहाध्यास है, उसका त्याग करना, शरीर क़ा मोह बिल्कुल छोड़ देना, शरीर के लिए अच्छा आहार-पानी या अन्य आवश्यकताओं वस्त्र, मकान, आदि प्राप्त करने की चेष्टा न करना। सहजभाव से जैसा जो कुछ मिल गया, उसी में निर्वाह करना। शरीर का भान ही न हो, केवल आत्मभान हो।
'सम्मं सहिस्सामि खामिस्सामि अहियासइस्सामि'- इन तीनों पदों के अर्थ में अन्तरवैसे तो तीनों क्रियाओं का एक ही अर्थ प्रतीत होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर तीनों में अर्थ स्पष्ट होगा। सहिस्सामि का अर्थ होता है- सहन करूँगा, उपसर्ग आने पर हायतोबा नहीं १. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ. २७३ २. (क) सामायिक पाठ श्लोक-२ (अमितगति आचार्य)
(ख) पाइअ-सद्द-महण्णवो पृ. ८२५, ३१८