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चतुर्दश अध्ययन : सूत्र ७३०-७३२
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होती है। इस प्रकार की अन्योन्यक्रिया अकल्पनीय या अनाचरणीय गच्छ-निर्गत प्रतिमाप्रतिपन्न साधुओं और जिन (वीतराग) केवली साधुओं के लिए है। इसलिए यह अन्योन्यक्रिया गच्छनिर्गत साधुओं के उद्देश्य से निषिद्ध है। गच्छगत-स्थविरों को कारण होने पर कल्पनीय है। फिर भी उन्हें इस विषय में यतना करनी चाहिए। गच्छनिर्गत प्रतिमाप्रतिपन्न, जिनकल्पी साधुओं के लिए इससे कोई प्रयोजन नहीं है।
स्थविरकल्पी साधुओं के लिए विभूषा की दृष्टि से, अथवा वृद्धत्व, अशक्ति, रुग्णता आदि कारणों के अभाव में, शौक से या बड़प्पन-प्रदर्शन की दृष्टि से चरण-सम्मार्जनादि सभी का नियमतः निषेध है, कारणवश अपनी बुद्धि से यतनापूर्वक विचार कर लेना चाहिए।
निशीथ उ० ४ की चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख है कि 'जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जइ वा पमज्जइ वा' इत्यादि ४१ सूत्रों का परक्रिया-सप्तक अध्ययनवत् उच्चारण करना चाहिए।
निशीथ (१५) में 'विभूसावडियाए' पाठ है, अतः सर्वत्र विभूषा की दृष्टि से इन सबका निषेध समझना चाहिए। ३ ।।
इन ४१ सूत्रों को संक्षेप में इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है - (१) पाद-परिकर्मरूप (२) काय-परिकर्मरूप, (३) व्रण-परिकर्मरूप, (४) गंडादिपरिकर्मरूप, (५) मलनिष्कासनरूप, (६) केश-रोमपरिकर्मरूप, (७) लीख-यूकानिष्कासनरूप, (८) अंक-पर्यंकस्थित पादपरिकर्मरूप, (९) अंक-पर्यंकस्थित-कायपरिकर्मरूप, (१०) अंक-पर्यंकस्थित व्रण परिकर्म रूप, (११) अंक-पर्यंकस्थित गंडादि परिकर्मरूप, (१२) अंक-पर्यंकस्थित मलनिष्कासन रूप, (१३) अंक-पर्यंकस्थित केश-रोमकर्तनादिपरिकर्मरूप, (१४) अंक-पर्यंकस्थित लीखयूकानिष्कासनरूप, (१५) अंक-पर्यंकस्थित आभरणपरिधानरूप, (१६) आराम, उद्यानादि में ले जाकर पादपरिकर्मरूप. (१७) शद्ध या अशद्ध मन्त्रादि बल से, सचित्त कन्द आदि उखड़वा कर उनके द्वारा चिकित्सा रूप अन्योन्यपरिचर्या रूप। ॥अन्योन्यक्रिया चौदहवाँ अध्ययन, सप्तम सप्तिका समाप्त॥
॥ द्वितीय चूला सम्पूर्ण ॥
१. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१७, आचा० चूर्णि मू० पा० टि० पृ० २५८
देखें पृष्ठ ३५७ का टिप्पण संख्या ७ (ख) २. (क) वही, पत्रांक ४७ के आधार पर
(ख) निशीथ उ० चूर्णि ४, पृ० २९२-२९७
(ग) आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० पृ० २५८ -विभूसा वडियाए विनियमा गमो सो चेव। ३. निशीथ उ० १५ चूर्णि ४. आयार चूला (मुनिश्री नथमल जी द्वारा सम्पादित) पृ० २२४ से २३०