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________________ ३४६ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६९४. यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को तेल, घी या चर्बी से चुपड़े, मसले तथा मालिश करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन व काया से उसे कराए। ६९५. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के चरणों को लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण से उबटन करे अथवा उपलेप करे तो साधु मन से भी उसमें रस न ले, न वचन एवं काया से उसे कराए। ६९६. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के चरणों को प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से प्रक्षालन करे अथवा अच्छी तरह से धोए तो मुनि उसे मन से न चाहे, न वचन और काया से कराए। ६९७. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों का इसी प्रकार के किन्हीं विलेपन द्रव्यों से एक बार या बार-बार आलेपन-विलेपन करे तो साधु उसमें मन से भी रुचि न ले, न ही वचन और शरीर से उसे कराए। ६९८. यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को किसी प्रकार के विशिष्ट धूप से धूपित और प्रधूपित करे तो उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से उसे कराए। ६९९. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में लगे हुए खूटे या कांटे आदि को निकाले या उसे शुद्ध करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए। ७००.यदि कोई गहस्थ साध के पैरों में लगे रक्त और मवाद को निकाले या उसे निकाल कर शुद्ध करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए। विवेचन-चरणपरिकर्म रूप परक्रिया का सर्वथा निषेध-सूत्र ६९१ से ७०० तक दस सूत्रों में चरण-परिकर्म से सम्बन्धित विविध परक्रिया मन-वचन-काया से कराने का निषेध किया गया है। संक्षेप में गृहस्थ द्वारा पाद परिकर्मरूप परक्रिया निषेध इस प्रकार है - (१) एक बार या बार-बार चरणों को पोंछकर साफ करे, (२) एक बार या बार-बार सम्मर्दन करे, (३) फूंक मारने के लिए स्पर्श करे या रंगे, (४) तेल, घी आदि चुपड़े, मसले अथवा मालिश करे, (५) लोध आदि सुगन्धित द्रव्यों से उबटन करे, लेप करे, (६) ठंडे या गर्म पानी से साधु के पैरों को एक बार या बार-बार धोए, (७) विलेपन-द्रव्यों से आलेपन-विलेपन करे, (८) साधु के चरणों में एक बार या बार-बार धूप दे, (९) साधु के पैरों में लगे हुए कांटे आदि को निकाले, और (१०) साधु के पैरों में लगे घाव से रक्त, मवाद आदि को निकालकर साफ करे। साधु के लिए गृहस्थ द्वारा की जाने वाली ऐसी परिचर्या लेने का मन, वचन, काया से निषेध है। निशीथसूत्र में इसी से मिलता पाठ है। गृहस्थ से ऐसी चरण-परिचर्या लेने में हानि–(१) गृहस्थ द्वारा आरम्भ-समारम्भ किया जाएगा, (२) स्वावलम्बनवृत्ति छूट जाएगी, (३) परतंत्रता, परमुखापेक्षिता, चाटुकारिता और दीनता आने की सम्भावना है, (४) कदाचित् गृहस्थ परिचर्या का मूल्य चाहे तो अकिंचन साधु दे नहीं १. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१६ के आधार पर (ख) निशीथसूत्र – उद्देशक ३, चूर्णि पृ० २१२-२१३
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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