________________
၃၃၃
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध जाता है, अथवा करण का अर्थ है आश्रय। ऐसे स्थानों में लोकविरोध तथा प्रवचन-विघात के भय से मलोत्सर्ग आदि नहीं करना चाहिए। १
निशीथचूर्णि में आसकरण' आदि पाठ है, वहाँ अर्थ किया गया है- अश्व-शिक्षा देने का स्थान - अश्वकरण है, आदि। २ वेहाणसट्ठाणेसु-मनुष्यों को फाँसी आदि पर लटकाने के स्थानों में, गिद्धपइट्ठाणेसु- जहाँ आत्महत्या करने वाले गिद्ध आदि के भक्षणार्थ रुधिरादि से लिपटे हुए शरीर को उनके सामने डाल कर बैठते हैं । तरु-पगडणटाणेसु-जहाँ मरणाभिलाषी लोग अनशन करके तरुवत् पड़ रहते हैं। अथवा पीपल, बड़ आदि वृक्षों से जो मरने का निश्चय करके अपने आपको ऊपर से गिराता है, उसे भी तरुप्रपतन स्थान कहते हैं। मेरुपवडणट्ठाणेसु- मेरु का अर्थ है पर्वत। पर्वत से गिरने के स्थानों में।
निशीथचूर्णि में 'गिरि' और 'मरु' का अन्तर बताया है, 'जिस पर्वत पर चढ़ने पर प्रपातस्थान दिखाई देता है, वह गिरि, औन नहीं दिखाई देता हो, वह मरु।' अगणिपक्खंदणट्ठाणेसु' -जहाँ व्यक्ति निकट से दौड़कर अग्नि में गिरता है उन स्थानों में। निशीथचूर्णि में भी 'गिरिपवडण' आदि पाठ मिलता है। ३
आरामाणि उज्जाणाणि-आराम का अर्थ बगीचा, उपवन होता है, परन्तु जहाँ उपलक्षण से आरामागार अर्थ अभीष्ट है, उजाण का अर्थ है-उद्यान'। निशीथचूर्णि में 'उजाण' और 'निजाण' (जहाँ शस्त्र या शास्त्र रखे जाते हों) दोनों प्रकार के स्थलों में, बल्कि उद्यानगृह, उद्यानशाला, निर्याणगृह और निर्याणशाला में भी उच्चार-प्रस्रवण-विसर्जन का दण्ड–प्रायश्चित १. (क) आचा० चूर्णि मू० पा० टि० पृ० २३३ पर.-'बीयाणि पडिसारेंसु वा पडिसारेंति वा पडिसाडिस्संति
वा खलगादिसु, काहिंचि वा अच्चणिया कया बीएहिं।' (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१० - आमोकानि-कचवरपुंजा, घसा-वृहत्यो भूमिराजयः, भिलुगानि–श्लक्षणभूमिराजयः, विजलं—पिच्छंल, कडवाणि-इक्षुजो नलिकादिदण्डकः, प्रगर्तामहागाः, प्रदुर्गाणि-कुड्यप्रकारादीनि। एतानि व समानि वा विषमाणि भवेयुः, तेष्वात्मसंयमविराधनासम्भवात् नोच्चरादि कुर्यात् । ...मानुषरन्धनादीनि चुल्यादीनि, तथा महिष्यादीनुद्दिश्य यत्र किञ्चित्
क्रियते, ते वा यत्र स्थाप्यन्ते, तत्र लोकविरुद्धप्रवचनोपघातभयानोच्चारादि कुर्यात्। २. 'आससिक्खाणं आसकरणं, एवं सेसाण वि।'
-निशीथचूर्णि उ०१२, पृ० ३४८ ३. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१० ।
(ख) 'जे भिक्खू गिरिपवडणाणि वा' ... " इत्यादि पाठ निशीथ उ०११ । गिरिमरूणं विसेसो, जत्थ पव्वते आरुढेहिं पवायट्ठाणं दीसति सो गिरी भन्नति, अदिस्समाणे मरु । .. ."पिप्पलवडमादी तरु, एते हिंतो जो अप्पाणं मुंचति मरणववसितो तं सवडणं भण्णति । पवडण-पक्खंदणाण इमो भेदो- .... थाणत्थो उड्ढे उप्पइत्ता जो पडति वस्त्रडेवणे डिंडकवत् एतं पवडणं, जं पुण अदूरतो आधावित्ता पडइ, तं पक्खंदणं । . जलजलणपक्खंदणा चउत्थो मरणभेदो। सेसा विसभक्खणादिया अट्रपत्तेयभेदा।
- निशीथचूर्णि उ० ११