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दशम अध्ययन : सूत्र ६४६-६६७
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(३) ऊँचे एवं विषमस्थानों से गिर जाने एवं चोट लगने तथा अयतना की सम्भावना रहती
(४) कूड़े के ढेर पर मलोत्सर्ग करने से जीवोत्पत्ति होने की सम्भावना है।
(५) फटी हुई, ऊबड़-खाबड़ या कीचड़ व गड्ढे वाली भूमि पर परठते समय पैर फिसलने से आत्म-विराधना की भी सम्भावना है।
(६) पशु-पक्षियों के आश्रयस्थानों में तथा उद्यान, देवालय आदि रमणीय एवं पवित्र स्थानों में मल-मूत्रोत्सर्ग करने से लोगों के मन में साधुओं के प्रति ग्लानि पैदा होती है।
(७) सार्वजनिक आवागमन के मार्ग, द्वार या स्थानों पर मल-मूत्र विसर्जन करने से लोगों को कष्ट होता है, स्वास्थ्य बिगड़ता है, साधुओं के प्रति घृणा उत्पन्न होती है।
(८) कोयले, राख आदि बनाने तथा मृतकों को जलाने आदि स्थानों में मल-मूत्र विसर्जन करने से अग्निकाय की विराधना होती है। कोयला, राख आदि वाली भूमि पर जीव-जन्तु न दिखाई देने से अन्य जीव-विराधना भी सम्भव है।
(९) मृतक स्तूप, मृतक चैत्य आदि पर वृक्षादि के नीचे तथा वनों में मल-मूत्र विसर्जन से देव-दोष की आशंका है।
(१०) जलाशयों, नदी तट या नहर के मार्ग में मलोत्सर्ग से अप्काय की विराधना होती है, लोक दृष्टि में पवित्र माने जाने वाले स्थानों में मल-मूत्र विसर्जन से घृणा या प्रवचन-निन्दा होती
(११) शाक-भाजी के खेतों में मल-मूत्र विसर्जन से वनस्पतिकाय-विराधना होती है। इन सब दोषों से बचकर निरवद्य, निर्दोष स्थण्डिल में पाँचवीं समिति से विधिपूर्वक मल-मूत्र विसर्जन करने का विवेक बताया है। १ ___'मट्टियाकडाए' आदि पदों की व्याख्या-वृत्तिकार एवं चूर्णिकार की दृष्टि से इस प्रकार है - मट्टियाकडाए - मिट्टी आदि के बर्तन पकाने का कर्म किया जाता हो, उस पर। परिसाडेंसु-बीज आदि खलिहान वगैरह में इधर-उधर फैंके गए हैं अथवा कहीं बीजों से अर्चना की हो। आमोयानि- कचरे के पुंज। घंसाणि- पोलीभूमि, फटी हुई भूमि। भिलुयाणिदरारयुक्त भूमि। विजलाणि-कीचड़ वाली जगह । कडवाणि-ईख के डण्डे। पगत्ताणि- बड़े-बड़े गहरे गड्डे। पदुग्गाणि-कोट की दुर्गम्य दीवार आदि ऐसे विषम स्थानों में मलमूत्रादि विसर्जन से संयम-हानि और आत्म-विराधना संभव है। माणुसरंधानि- चूल्हे आदि। महिसकरणाणि आदि - जहाँ भैंस आदि के उद्देश्य से कुछ बनाया जाता है या स्थापित किया १. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०८ से ४१० . (ख) आचा० चूर्णि मू० पा० टि० पृ० २३१ से २३९