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________________ अष्टम अध्ययन: सूत्र ६४० ३०५ है । अपने स्थान की मर्यादित भूमि में ही काय - परिक्रमण – परिस्पन्दन करता है, यानि हाथ, पैर आदि का संकोचन - प्रसारणादि करता है और थोड़ा-सा पैरों से चंक्रमण करता है। (सवियार का अर्थ है - चंक्रमण, अर्थात् – पैरों से थोड़ा-थोड़ा विचरण - विहरण करना, चहलकदमी करना) यानी वह विहरणरूप स्थान में ही स्थित रहता है। तात्पर्य यह है कि पैरों से उतना ही चंक्रमण करता है, जिससे मल-मूत्र विसर्जन सुखपूर्वक हो सके । १ - दूसरी प्रतिमा में कायोत्सर्ग में स्थिति के अतिरिक्त आलम्बन एवं परिस्पन्दन (आकुञ्चनप्रसारणादि क्रिया वाणी एवं काया से) करता है, पैरों आदि से चंक्रमण नहीं करता । तीसरी प्रतिमा में कायोत्सर्ग में स्थिति के अतिरिक्त केवल आलम्बन ही लेता है, परिस्पन्दन और परिक्रमण (चंक्रमण) नहीं करता, और चौथी प्रतिमा में तो इन तीनों का परित्याग कर देता है । चतुर्थ प्रतिमा के धारक का स्वरूप यह है कि वह परिमित काल तक अपनी काया का व्युत्सर्ग कर देता है, तथा अपने केश, दाढ़ीमूँछ, रोम - नख आदि पर से भी ममत्व विसर्जन कर देता है, इस प्रकार शरीरादि के प्रति ममत्व एवं आसक्तिरहित होकर वह सम्यक् निरुद्ध स्थान में स्थित होकर कायोत्सर्ग करता है, इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके सुमेरु की तरह निष्कम्प रहता है। यदि कोई उसके केश आदि को उखाड़े तो भी वह अपने स्थान कायोत्सर्ग से विचलित नहीं होता । — 'संणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्सामि' पाठ मानकर चूर्णिकार व्याख्या करते हैं - सन्निरुद्ध कैसे होता है? समस्त प्रवृत्तियों का त्याग करके, इधर-उधर तिरछा निरीक्षण छोड़कर एक ही पुद्गल पर दृष्टि टिकाए हुए अनिमिष (अपलक) नेत्र होकर रहना सन्निरुद्ध होना कहलाता है। इसमें साधक को अपने केश, रोम, नख, मूँछ आदि उखाड़ने पर भी विचलितता नहीं होती । ' २ ६४०. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा जाव े जएज्जासि त्ति बेमि । ६४०. यही (स्थानैषणा विवेक ही) उस भिक्षु या भिक्षुणी का आचार - सर्वस्व है; जिसमें सभी ज्ञानादि आचारों से युक्त एवं समित होकर वह सदा प्रयत्नशील रहे । ॥ अष्टम अध्ययनः प्रथम सप्तिका समाप्त ॥ १. आचारांग चूर्णि मू०मा०टि० पृ० २२८ पर - "चउहिँ ठाणेहिं ठाएज्जा, अचित्तं अवसज्जिस्सामि, अवसज्जणं अवत्थंभणं, कुड्डे खंभादिसु वा पट्ठीए वा, पट्ठीए उरेण वा अवलंबणं, हत्थेण लंबंता परिस्संता अग्गलादिसु अवलंबति । ठाण-परिच्चातो कायविपरिक्कमणं । सवियारं चंक्रमणमित्यर्थः; उच्चार पासवणादि सुहं भवति ते जाणेज्जा । " २. "संणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्सामि —कहं सन्निरुद्धं ? अप्पजसमि (य) ति? अप्पतिरियं एगपोग्गलदिट्ठी अणिमिसणयणे विभासियव्वं परूढणहकेसमंसू ........... ३. 'जाव' शब्द से यहाँ सू० ३३४ के अनुसार 'भिक्खुणीए वा' से 'जएज्जासि' तक का समग्र पाठ समझें ।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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