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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
कही जाने वाली) चार प्रतिमाओं का आश्रय लेकर किसी स्थान में ठहरने की इच्छा करे
[१] इन चारों में से प्रथम प्रतिमा का स्वरूप इस प्रकार है-मैं अपने कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थन में निवास करूँगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूँगा तथा हाथ-पैर आदि सिकोड़ने-फैलाने के लिए परिस्पन्दन आदि करूँगा, तथा वहीं (मर्यादित भूमि में ही) थोड़ा-सा सविचार पैर आदि से विचरण करूँगा। यह पहली प्रतिमा हुई।
[२] इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा का रूप इस प्रकार है-मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूँगा और अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूँगा तथा हाथ-पैर आदि सिकोड़ने-फैलाने के लिए परिस्पन्दन आदि करूँगा, किन्तु पैर आदि से मर्यादित भूमि में थोड़ा-सा भी विचरण नहीं करूँगा।
__ [३] इसके अनन्तर तृतीय प्रतिमा —मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूँगा, अचित्त दीवार आदि का शरीर से सहारा लूँगा, किन्तु हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण एवं पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण नहीं करूँगा।
[४] इसके बाद चौथी प्रतिमा यों है—मैं कायात्सर्ग के समय अचित्तस्थान में स्थित रहूँगा। उस समय न तो शरीर से दीवार आदि का सहारा लूँगा, न हाथ-पैर आदि का संकोचन-प्रसारण करूँगा, और न ही पैरों से मर्यादित भूमि में जरा-सा भी भ्रमण करूंगा। मैं कायोत्सर्ग पूर्ण होने तक अपने शरीर के प्रति भी ममत्व का व्युत्सर्ग करता हूँ। केश, दाढ़ी, मूंछ, रोम और नख आदि के प्रति भी ममत्व विसर्जन करता हूँ और कायोत्सर्ग द्वारा सम्यक् प्रकार से काया का निरोध करके . इस स्थान में
६३९. साधु इन (पूर्वोक्त ) चार प्रतिमाओं से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण करके विचरण करे। परन्तु प्रतिमा ग्रहण न करने वाले अन्य मुनि की निंदा न करे, न अपनी उत्कृष्टता की डींग हांके। इस प्रकार की कोई भी बात न कहे।
विवचेन-स्थान सम्बन्धी चार प्रतिमाएँ-प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए स्थान में स्थित होने पर स्वेच्छा से ग्राह्य ४ प्रतिज्ञाएँ (अभिग्रह विशेष) बताई गई हैं, वे चार प्रतिमाएँ संक्षेप में हैं
(१) अचित्त स्थानोपाश्रया, (२) अचित्तावलम्बना, (३) हस्तपादादि परिक्रमणा, (४) स्तोक पादविहरणा। प्रथम में ये चारों ही होती हैं, फिर उत्तरोत्तर एक-एक अन्तिम कम होती जाती है। इन चारों की व्याख्या चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार है
(१) प्रथम प्रतिमा का स्वरूप-चार प्रकार के कायोत्सर्ग में स्थित हो—अचित्त (स्थान) का (कायोत्सर्ग में) आश्रय लेकर रहता है, दीवार, खंभे आदि अचित्त वस्तुओं का पीठ से, या पीठ एवं छाती से सहारा लेता है। हाथ लम्बा रखने से थक जाने पर आगल आदि का सहारा लेता