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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
(३) बहुत-से श्रमणादि को गिन-गिनकर औद्देशिक यावत् अभिहृत दोषयुक्त स्थान हो तो
न ठहरे।
(४) बहुत-से श्रमणादि के उद्देश्य से निर्मित, क्रीतादि दोषयुक्त तथा अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित स्थान में न ठहरे।
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(५) ऐसे पुरुषान्तरकृत स्थान में ठहरे।
(६) साधु के लिए संस्कारित परिकर्मित और अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित स्थान में न ठहरे।
(७) इससे विपरीत पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित स्थान में ठहरे।
(८) साधु के लिए द्वार छोटे या बड़े बनवाए, यावत् भारी चीजों को इधर-उधर हटाए, बाहर निकाले, ऐसे अपुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित स्थान में न ठहरे।
(९) इससे विपरीत पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित स्थान में ठहरे।
(१०) साधु को ठहराने के लिए उसमें पानी से उगे हुए कंदमूल यावत् हरी को वहाँ से हटाए, उखाड़े, निकाले फिर वह पुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित स्थान हो तो उसमें न ठहरे। (११) इससे विपरीत पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो तो उसमें ठहरे। १
इन ११ आलापकों के अतिरिक्त चूर्णिकार के मतानुसार और भी बहुत से आलापक हैं, , जैसे कि – जो स्थान अनन्तरहित (सचेतन), पृथ्वी यावत् जीवों से युक्त हो, जहाँ दुष्ट मनुष्य, सांड, सिंह, सर्प आदि का निवास हो या खतरा हो, जो ऊँचा हो और जिस पर चढ़ने में फिसल जाने का भय हो, जो विषम ऊबड़-खाबड़ या बहुत नीचा हो या बहुत ऊँचा हो, जिस स्थान पर गृहस्थ द्वारा पश्चात्कर्म करने की सम्भावना हो, जो स्थान सचित्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति आदि से युक्त या प्रतिष्ठित हो, जिस स्थान में स्त्री, पशु, क्षुद्र, प्राणी तथा नपुंसक का निवास हो, जहाँ गृहस्थ का परिवार अग्नि जलाना, स्नानादि करना आदि सावद्यकर्म करता हो, जहाँ गृहस्थ का परिवार व पारिवारिक महिलाएँ रहती हों, जिस स्थान में से बार-बार गृहस्थ के घर में जाने-आने का मार्ग हो, जहाँ गृहस्थ के पारिवारिक जन परस्पर लड़ते झगड़ते हों, हैरान करते । जहाँ परस्पर तेल आदि का मर्दन किया जाता हो, जहाँ पड़ौस में स्त्री-पुरुष एक दूसरे के शरीर पर पानी छींटते यावत् स्नान कराते हों, जहाँ बस्ती में नग्न या अर्द्धनग्न स्त्री-पुरुष परस्पर मैथुन सेवन की प्रार्थना करते हों, रहस्यमंत्रणा करते हों, जहाँ नग्न या अश्लील चित्र अंकित हों, इत्यादि स्थानों में साधु निवास न करे ।
इसके विपरीत गाँव आदि में जिस स्थान में दो, तीन चार या पाँच साधु समूह रूप में ठहरें, वहाँ एक दूसरे के शरीर से आलिंगन आदि मोहोत्पादक दुष्क्रियाओं से दूर रहें। इन दोषों सम्भावना के कारण एक साधु दूसरे साधु से कुछ अंतर (दूर) – कोई विशेष कारण न हो तो १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३६०-३६१ ; सूत्र ४१२ से ४१८ तक