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॥ बीआ चूला ॥
अट्ठमं अज्झयणं 'ठाणसत्तिक्कयं '
स्थान - सप्तिका : अष्टम अध्ययन
३०१
अण्डादि युक्त-स्थान-ग्रहण निषेध
२
६३७. से भिक्खू वा २ अभिकंखेति 'ठाणं ठाइत्तए । से अणुपविसेजा गामं वा नगरं वा जाव संणिवेसं वा । से अणुपविसित्ता गामं वा जाव संणिवेसं वा से ज्जं पुण ठाणं जाणे अंडं जाव रे मक्कडासंताणयं, तं तहप्पगारं ठाणं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे int पडिगाजा । एवं सेज्जागमेण नेयव्वं जाव उदयपसूयाइं 'ति ।
६३७. साधु या साध्वी यदि किसी स्थान में ठहरना चाहे तो तो वह पहले ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर वह जिस स्थान को जाने कि यह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थान को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे ।
इसी प्रकार इससे आगे का यहाँ से उदकप्रसूत कंदादि तक का स्थानैषणा सम्बन्धी वर्णन शय्यैषणा अध्ययन में निरूपित वर्णन के समान जान लेना चाहिए।
विवेचन - कैसे स्थान में ठहरे, कैसे में न ठहरे ? - प्रस्तुत सूत्र में शय्यैषणा अध्ययन की तरह स्थान सम्बन्धी गवेषणा में विवेक बताया गया है । शय्या के बदले यहाँ स्थान समझना चाहिए। एक सूत्र तो यहाँ दे दिया है, शेष सूत्रों का रूप संक्षेप में इस प्रकार समझ लेना चाहिए -
(१) अंडों वावत् मकड़ी के जालों से युक्त स्थान न हो तो उसमें ठहरे ।
(२) एक साधर्मिक यावत् बहुत-सी साधर्मिणियों के उद्देश्य से समारम्भपूर्वक निर्मित, क्रीत, पामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभिहृत स्थान पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो अथवा अनासेवित, उसमें न ठहरे।
१.
'अभिकंखेति' के बदले 'अभिकंखति', 'अभिकंखेज्जा' पाठान्तर हैं, अर्थ एक-सा है।
२. यहाँ ' जाव' शब्द सू. २२४ के अनुसार 'गामं वा' से 'संणिवेसं वा' तक के पाठ का सूचक है। ३. यहाँ 'जाव' शब्द सू. ३२४ के अनुसार 'सअंडं' से 'मक्काडासंताणयं' तक के पाठ का सूचक है। ४. यहाँ 'जाव' शब्द से शय्याऽध्ययन के सू. ४१२ से ४१७ तक 'उदकपसूताणि कंदाणि ... चेतेज्जा' तक का समग्र वर्णन समझें ।