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सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र ६३३-६३४
(६) इसके पश्चात् छठी प्रतिमा यों है जो साधु जिसके अवग्रह ( आवासस्थान) की याचना करता है उसी अगृहीत स्थान में पहले से ही रखा हुआ शय्या संस्तारक (बिछाने के लिए घास आदि) मिल जाए, जैसे कि इक्कड़ नामक तृणविशेष यावत् पराल आदि; तभी निवास करता है। वैसे अनायास प्राप्त शय्या-संस्तारक न मिले तो उत्कटुक अथवा निषद्या-आसन द्वारा रात्रि व्यतीत करता है । यह छठी प्रतिमा है ।
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(७) इसके पश्चात् सातवीं प्रतिमा इस प्रकार है - साधु या साध्वी ने जिस स्थान की अवग्रहअनुज्ञा ली हो, यदि उसी स्थान पर पृथ्वीशिला, काष्ठशिला तथा पराल आदि बिछा हुआ प्राप्त हो तो वहाँ रहता है, वैसा सहज संस्तृत पृथ्वीशिला आदि न मिले तो वह उत्कटुक या निषद्या-आसन पूर्वक बैठकर रात्रि व्यतीत कर देता है। यह सातवीं प्रतिमा है ।
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६३४. इन सात प्रतिमाओं में से जो साधु किसी प्रतिमा को स्वीकार करता है, वह इस प्रकार न कहे -मैं उग्राचारी हूँ, दूसरे शिथिलाचारी हैं, इत्यादि शेष समस्त वर्णन पिण्डैषणा अध्ययन में किए गए वर्णन के अनुसार जान लेना चाहिए ।
विवेचन
- अवग्रह सम्बन्धी सप्त प्रतिमाएं - - सूत्र ६३३ और ६३४ में अवग्रह - याचना सम्बन्धी सात प्रतिज्ञाएँ (अभिग्रह) और उनका स्वरूप बताने के अतिरिक्त प्रतिमा - प्रतिपन्न साधु का जीवन कितना सहिष्णु, समभावी एवं नम्र होना चाहिए, यह भी उपसंहार में बता दिया है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के अनुसार इन सातों प्रतिमाओं का स्वरूप क्रमश: इस प्रकार होगा -" सात प्रतिमाएँ हैं। जितनी भी अवग्रह याचनाएँ हैं, वे सब इन सातों प्रतिमाओं के अन्दर आ जाती हैं।"
(१) प्रथम प्रतिमा - सांभोगिकों की सामान्य है । धर्मशाला आदि के सम्बन्ध में पहले से विचार करके प्रतिज्ञा करता है कि 'ऐसा ही उपाश्रय मुझे अवग्रह के रूप में ग्रहण करना है, अन्यथाभूत नहीं ।'
(२) दूसरी प्रतिमा साधुओं की होती है। जैसेगृहीत अवग्रह में रहूँगा । "
( ३ ) तीसरी प्रतिमा - आहालंदिक साधुओं और आचार्यों की होती है, कारण विशेष में अन्य साम्भोगिक साधुओं की भी होती है। जैसे - -"मैं दूसरे साधुओं के लिए अवग्रह — याचना करूँगा, किन्तु दूसरों के अवगृहीत अवग्रह में नहीं ठहरूँगा । "
(४) चौथी प्रतिमा - गच्छ में स्थित अभ्युद्यतविहारियों तथा जिनकल्पादि के लिए परिकर्म करने वालों की होती है । जैसे— “मैं दूसरों के लिए अवग्रह-याचना नहीं करूँगा, दूसरे साधुओं द्वारा याचित अवग्रह में रहूँगा । "
गच्छान्तर्गत साम्भोगिक साधुओं की तथा असाम्भोगिक उद्युक्तविहारी -"मैं दूसरे साधुओं के लिए अवग्रह की याचना करूँगा, दूसरों के
(५) पांचवीं प्रतिमा — जिनकल्पिक की या प्रतिमाधारक साधु की होती है । यथा- "मैं अपने लिए अवग्रह की याचना करूँगा, किन्तु अन्य दो, तीन, चार, पांच साधुओं के लिए नहीं।"