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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
वा णेसज्जिओ वा विरहेज्जा।सत्तमा पडिमा।
६३४. इच्चेतासिं सत्तण्हं पडिमाणं अण्णतरि जहा पिंडेसणाए ।
६३३. साधु या साध्वी पथिकशाला आदि स्थानों में पूर्वोक्त विधिपूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके रहे। अवग्रह-गृहीत स्थान में पूर्वोक्त अप्रीतिजनक प्रतिकूल कार्य न करे तथा विविध अवग्रहरूप स्थानों की याचना भी विधिपूर्वक करे। इसके अतिरिक्त अवगृहीत स्थानों में गृहस्थ तथा गृहस्थपुत्र आदि के संसर्ग से सम्बन्धित (पूर्वोक्त) स्थानदोषों का परित्याग करके निवास करे।
भिक्षु इन सात प्रतिमाओं के माध्यम से अवग्रह ग्रहण करना जाने –
(१) उनमें से पहली प्रतिमा यह है - वह साधु पथिकशाला आदि स्थानों की परिस्थिति का सम्यक् विचार करके अवग्रह की पूर्ववत् विधिपूर्वक क्षेत्र-काल की सीमा के स्पष्टीकरण सहित याचना करे। इसका वर्णन स्थान की परिस्थिति का विचार करने से नियत अवधि पूर्ण होने के पश्चात् विहार कर देंगे तक समझना चाहिए। यह प्रथम प्रतिमा है।।
(२) इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा यह है – जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह(संकल्प) होता है कि मैं अन्य भिक्षुओं के प्रयोजनार्थ अवग्रह की याचना करूँगा और अन्य भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह-स्थान (उपाक्षय) में निवास करूँगा। यह द्वितीय प्रतिमा है।
(३) इसके अनन्तर तृतीय प्रतिमा यों है- जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह-याचना करूँगा, परन्तु दूसरे भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह स्थान में नहीं ठहरूँगा। यह तृतीय प्रतिमा है।
(४) इसके पश्चात् चौथी प्रतिमा यह है – जिस भिक्षु के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह की याचना नहीं करूँगा, किन्तु दूसरे साधुओं द्वारा याचित अवग्रह स्थान में निवास करूँगा। यह चौथी प्रतिमा है।
___ (५) इसके बाद पांचवी प्रतिमा इस प्रकार है - जिस भिक्षु के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं अपने प्रयोजन के लिए ही अवग्रह की याचना करूँगा, किन्तु दूसरे दो, तीन, चार और पांच साधुओं के लिए नहीं। यह पांचवी प्रतिमा है।
चूर्णिकार इस सूत्र का आशय स्पष्ट करते हैं - अंतरादीवगं सुर्य मे आउसंतेण भगवता, पंचविहे उग्गहे परवेयव्वे। एवं पिंडेसणाणं सव्वज्झयणाण य। इत्यवग्रहप्रतिमा समाप्ता। अर्थात् - बीच में और आदि में 'सुयं मे आउसंतेण भगवता' इस प्रकार से कहकर शास्त्रकार को पंचविध अवग्रह की प्ररूपणा करनी चाहिए थी। (चूर्णिकार के मतानुसार) इस प्रकार पिण्डैषणा की तथा समस्त अध्ययनों की अवग्रह प्रतिमा समाप्त
हुई। इस दृष्टि से सूत्र ६३६ से पहले ही यह अध्ययन समाप्त हो जाता है। यह सूत्र अतिरिक्त है। २. 'जहा पिंडेसणाए' शब्द से यहाँ पिण्डैषणा अध्ययन के सूत्र ४१० के अनुसार वर्णन जान लेने का संकेत
किया है।