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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
में से अथवा रुग्णादि के लिए याचित में से नहीं।
(४) गृहस्थ के घर से स्व- याचित सूई, कैंची, कानकुरेदनी, नहरनी आदि चीजें लाया हो तो उन चीजों को स्वयं जाकर उस गृहस्थ को विधिपूर्वक सौंपे, अन्य किसी को नहीं ।
तात्पर्य - इन चारों सूत्रों में स्थान, आहार, पीठ - फलकादि या सूई, कैंची आदि, जितनी भी वस्तुओं का साधु उपयोग या उपभोग करता है, उनके स्वामी या अधिकारी से अनुज्ञापूर्वक ग्रहण (अवग्रह) की विधि से उन सबकी याचना करना आवश्यक बताया है और स्वयाचित वस्तुओं में से ही यथायोग्य साधर्मिकों को मनुहार करके दिया जा सकता है। प्रातिहारिक रूप में स्वयाचित वस्तु (सूई आदि) को स्वयं जाकर वापस सौंपने की विधि बताई है। इन विधानों के पीछे कारण ये हैं - बिना अवग्रहयाचना किये ही किसी के स्थान का उपयोग करने से उस स्थान का स्वामी या अधिकारी क्रुद्ध होगा, अपमानित करेगा, साधु को अदत्तादान दोष भी लगेगा। परयाचित या परार्थ- दूसरे किसी साधु के लिये याचित वस्तु को लेने की किसी साधर्मी साधु को मनुहार करने से उस साधु को बुरा लग सकता है, वह रुग्ण हो तो उसके अन्तराय लग सकता है। तथा प्रातिहारिक रूप से स्वयाचित वस्तुएँ दूसरे साधु को सौंप देने से वह वापस लौटाना भूल जाए या उससे वह चीज खो जाए तो दाता को साधुओं के प्रति अश्रद्धा पैदा हो जायेगी, वचन भंग होगा, असत्य का दोष लगेगा ।
साधर्मिक, साम्भोगिक और समनोज्ञ में अन्तर — एक धर्म, एक देव और प्रायः एक सरीखे वेश वाले साधर्मिक साधु कहलाते हैं। साम्भोगिक वे कहलाते हैं, जिनके आचार-विचार और समाचारी एक हों और समनोज्ञ वे होते हैं, जो उद्युक्त विहारी - आचार-विचार में अशिथिल हों । इसका समनुज्ञ रूपान्तर भी होता है, जिसका अर्थ होता है - एक आचार्य या एक गुरु की अनुज्ञा में विचरण करने वाले ।
शास्त्रीय विधान के अनुसार जो साधर्मिक होते हुए साम्भोगिक (बारह प्रकार के परस्पर सहोपभोग व्यवहारवाले) और समनोज्ञ साधु होते हैं, उनके साथ आहार आदि या वन्दन व्यवहारादि का लेन-देन होता है, किन्तु अन्य साम्भोगिक के साथ शयनीय उपकरणों आदि का लेन-देन खुला होता है। इसी अन्तर को स्पष्ट करने हेतु शास्त्रकार ने ये तीन विशेषण प्रयुक्त किये हैं ।
अवग्रह-वर्जित स्थान
६१२. से भिक्खू वा २ से ज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा अणंतरहिताए, पुढवीए ससणिद्धाए पुढवीए १ जाव संताणए, तहप्पगारं उग्गहं णो २ ओगिण्हेज वा २ ।
१. यहाँ ' जाव' शब्द से 'पुढवीए' से 'संताएण' तक का पाठ सूत्र ३५३ के अनुसार समझें । २. 'णो ओगिण्हेज्जवा' के बदले पाठान्तर है—' णो गिण्हेज ' ।