SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ६०९. से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि? जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा' उवागच्छेजा जे तेण सयमेसित्तए असणे वा ४ तेण ते साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवणिमंतेजा, णो चेव णं परपडियाए' आगिज्झिय २ उवणिमंतेजा। ६१०.से आगंतारेसुवा जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि? जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइया समणुण्णा उवागच्छेजा जे तेण सयमेसित्तए पीढ़े वा फलए वा सेज्जासंथारए वा तेण ते साहम्मिए अण्णसंभोइए समणुण्णे उवणिमंतेजा, णो चेवणं परपडियाए ५ ओगिहिर्य २ उवणिमंतेजा।। ६११. से आगंतारेसु वा जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि? जे त्तथ गाहावतीण वा गाहवतिपुत्ताण वा सूई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा णहच्छेदणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्टाए पडिहारियं जाइत्ता णे अण्णमण्णस्स देज्ज वा अणपदेज वा ,सयं करणिजं ति कट्ट से त्तमादए तत्थ गच्छेज्जा, २[त्ता] पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कट्ट भूमीए वा ठवेत्ता इमंखलु इमं खलु त्ति आलोएज्जा, णो चेवणं सयं पाणिणा परपाणिंसि पच्चप्पिणेजा। ६०८. साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहस्थ के घरों और परिव्राजकों के आवासों (मठों) में जाकर पहले साधुओं के आवास योग्य क्षेत्र भलीभाँति देख-सोचकर फिर अवग्रह (वसति आदि) की याचना करे। उस क्षेत्र या स्थान का जो स्वामी हो, या जो वहाँ का अधिष्ठाता—नियुक्त अधिकारी हो उससे इस प्रकार अवग्रह की अनुज्ञा माँगे—'आयुष्मन् ! आपकी इच्छानुसार —जितने समय तक रहने की तथा जितने क्षेत्र में निवास करने की तुम आज्ञा दोगे, उतने समय तक, उतने क्षेत्र में हम निवास करेंगे। यहाँ जितने समय तक आप आयुष्मान् की अवग्रह-अनुज्ञा है, उतनी अवधि तक जितने भी अन्य साधर्मिक साधु आएँगे, उनके लिए भी जितने क्षेत्र-काल की अवग्रहानुज्ञा ग्रहण १. समणुण्णो का अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में – 'समणुण्णो, ण समं असंखणं, ण वा एगल्लविहारी।' -समनुज्ञ अर्थात् जो न तो अनियंत्रित अथवा किसी के साथ कलहकारी है, और न ही एकलविहारी है, . अर्थात् जो मिलनसार है। २. 'परपडियाए ' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं -'परवेयावडिया पर संतिएणं।'-दूसरे साधु की सेवा के लिये दूसरे का अधिकार का। ३ सयमेसित्तए' के बदले पाठान्तर हैं-'सयमेसिय ''सयमेसित्ताते "सयमेसितए।' ४. चूर्णिकार के अनुसार तात्पर्य है-'अण्णसंभोइए पीढएण वा फलएण वा सेज्जासंथारएण वा उवणिमंतेज्ज' अर्थात् – 'अन्यसांभोगिक साधु को पीठ, फलक और शय्यासंस्तारक का उपनिमंत्रण (मनुहार) करना चाहिए।' ५. 'परपडियाए' के बदले पाठान्तर है- 'परवेयावडियाते'। 'ओगिण्हिय ओगिण्हिय' के बदले पाठान्तर हैं—'उगिज्झिय २' उणिण्हिय उनिमंतेज्जा, उगिण्हिय णिमंतेजा, उगिण्हिय-२ निमंतेजा। भावार्थ समान है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy