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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
में प्रविष्ट होकर स्वयं बिना दिये हुए (किसी भी) पदार्थ को ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण कराए और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन - समर्थन करे ।
जिन साधुओं के साथ या जिनके पास वह प्रव्रजित हुआ है, या विचरण कर रहा है या रह रहा है, उनके भी छत्रक, दंड, पात्रक (भाजन) यावत् चर्मच्छेदनक आदि उपकरणों की पहले उनसे अवग्रह- अनुज्ञा लिये बिना तथा प्रतिलेखन - प्रमार्जन किये बिना एक या अनेक बार ग्रहण न करे । अपितु उनसे पहले अवग्रह - अनुज्ञा ( ग्रहण करने की आज्ञा ) लेकर, तत्पश्चात् उसका प्रतिलेखनप्रमार्जन करके फिर संयमपूर्वक उस वस्तु को एक या अनेक बार ग्रहण करे। विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में अवग्रह की उपयोगिता और अनिवार्यता बताई है, उसका कारण प्रस्तुत किया गया है. - साधु का अकिंचन, परदत्तभोजी एवं अदत्तादानविरमण - महाव्रती जीवन । साधु कहीं भी जाए, कहीं भी किसी भी साधु के साथ रहे, या विचरण करे, या किसी भी स्थान, अचित्त पदार्थ, आहार- पानी, औषध, मकान, वस्त्र पात्रादि उपकरण की आवश्यकता हो, नया उपकरण लेना हो, किन्हीं साधुओं के निश्राय के पुराने उपकरणादि का उपयोग करना हो तो सर्वप्रथम उस वस्तु के स्वामी या अधिकारी से अवग्रह- अनुज्ञा लेना आवश्यक है, तत्पश्चात् प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके उसका एक या अधिक बार ग्रहण या उपयोग करना है । '
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समस्त.
'अपुत्ते अपसू' आदि पदों का तात्पर्य एवं रहस्य अपुत्ते का शब्दश: अर्थ तो अपुत्रपुत्ररहित होता है, किन्तु वहाँ उपलक्षण से पुत्र आदि जितने भी गृहस्थपक्षीय सम्बन्धी, हैं, उनके उक्त सम्बन्ध से मुक्त अर्थ समझना चाहिए । इसी प्रकार 'अपसू' का तात्पर्य भी होता हैद्विपद- चतुष्पद आदि पशु-पक्षी आदि हैं, उन सबके प्रति स्वामित्व या ममत्व से रहित । इन दोनों पदों को प्रस्तुत करने के पीछे शास्त्रकार का आशय यह प्रतीत होता है कि साधु का पुत्रादि या पशु आदि के प्रति ममत्व एवं स्वामित्व समाप्त हो चुका है, तब यदि कोई पुत्र आदि शिष्य बनना चाहे तो उनके अभिभावक या संरक्षक की अनुज्ञा के बिना शिष्य के रूप में उसे स्वीकार नहीं कर सकता। पशु भी साथ में रख नहीं सकता।
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सर्वत्र अवग्रहानुज्ञा आवश्यक
विहार, शौचादि, भिक्षाटन आदि प्रत्येक क्रिया में प्रवृत्त होने से पूर्व आचार्य या दीक्षास्थविर या दीक्षाज्येष्ठ मुनि या गुरु की अनुज्ञा ग्रहण करना आवश्यक है । प्रतिक्रमण, शयन, प्रवचन, स्वाध्याय, तप, वैयावृत्य आदि प्रवृत्ति की भी अनुज्ञा ग्रहण करन आवश्यक बताया है। २
आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०२ के आधार पर
तुलना करें - "पुच्छिज्जा पंजलिउडो, किं कायव्वं मए इह ।
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इच्छं निओइडं भंते! वेयावच्चे व सज्झाए ॥'
- उत्तर. अ. २६ / ९
इच्छामिणं भंते ! तुब्भेहि अब्भण्णुण्णाए समाणे देवसियं पडिक्कमणं ठाउं । - आवश्यक सूत्र "अणुजाणह में मिउग्गहं। " - आवश्यक गुरुवन्दनसूत्र
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