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सत्तमं अज्झयणं'ओग्गहपडिमा'
[पढमो उद्देसओ] अवग्रह-प्रतिमा : सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक
अवग्रह-ग्रहण की अनिवार्यता
६०७. समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोई पावं कम्मं णो करिस्सामि त्ति समुट्ठाए सव्वं भंते! अदिण्णादाणं पच्चक्खामि।
से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणिं वाणेव सयं अदिण्णं, गेण्हेज्जा, णेवऽण्णेणं अदिण्णं गेण्हावेज्जा, णेवऽण्णं अदिण्णं गेण्हतं पिसमणुजाणेज्जा। ___ जेहिं विसद्धिं संपव्वइए तेसिंऽपियाइं छत्तयं वा डंडगंवा मत्तयं वा जाव'चम्मच्छेयणगं वा तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुण्णहिय अपडिलेहिय अपमज्जिय णो गिण्हेज वा, पगिण्हेज वा, तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणुण्णविय पडिलेहिय पमज्जिय तओ संजयामेव ओगिण्हेज वा पगिण्हेज वा।
६०७. मुनिदीक्षा लेते समय साधु प्रतिज्ञा करता है - "अब मैं श्रमण बना जाऊँगा। अनगार (घरबार रहित), अंकिचन (अपरिग्रही), अपुत्र (पुत्रादि सम्बन्धों से मुक्त), अपशु, (द्विपद-चतुष्पद आदि पशुओं के स्वामित्व से मुक्त) एवं परदत्तभोजी (दूसरे-गृहस्थ द्वारा प्रदत्त-भिक्षा प्राप्त आहारादि का सेवन करने वाला ) होकर मैं अब कोई भी हिंसादि पापकर्म नहीं करूँगा। इस प्रकार संयम पालन से लिए उत्थित-समुद्यत होकर (कहता है-) भंते ! मैं आज समस्त प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ।'
(इस प्रकार की (तृतीय महाव्रत की), प्रतिज्ञा लेने के बाद-) वह साधु ग्राम यावत् राजधानी १. छत्र-दण्ड आदि उपकरण बिना दिये लेने का प्रसंग-चूर्णिकार के शब्दों में -"तं कहिं गामे नगरे वा लोइयं
गतं । लोउत्तरं डंडगादि, छत्रगं; देसं पडुच्च जहा कोंकणेसु, णिव्वंता सत्ता णाउल्लिंति डंडएण सन्नाभूमी गच्छंतो अप्पणो अदिस्संतो अणुनवेत्ता णेति, संघरामादिसु वा अणुन्नवेति।" उदाहरणार्थ---- साधु किस ग्राम या नगर में शौचादि के लिए स्थलिण्डलभूमि में गया, शौचनिवृत्ति के अनन्तर वर्षा हो गई। चारों ओर कीचड़ ही कीचड हो गया। अगर साधु उस समय चलता है तो भीग जायेगा, कीचड़ में फँस जायेगा। इसलिए वहाँ अपना दंड न देखकर दूसरे का दंड उतावली में बिना आज्ञा लिए ही ले लेता है। कोंकण आदि देश की अपेक्षा से छाता भी लगाना पड़ता है। वर्षा में छाता भी दूसरे बौद्ध आदि भिक्षु से बिना आज्ञा के उस समय ले लेता
है, फिर संघाराम आदि में आकर उस भिक्षु से उनकी आज्ञा लेता है। २. 'जाव' शब्द यहाँ सू० ४४४ के अनुसार 'मत्तयं ' से 'चम्मच्छेयणगं' तक के पाठ का सूचक है।