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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध है। वृत्तिकार शीलाचार्य का मत है १ - यह सूत्र जिनकल्पिक के उद्देश्य से उल्लिखित समझना चाहिए, वस्त्रधारी विशेषण होने से स्थविरकल्पी के भी अनुरूप है। समस्त वस्त्रों सहित विहारादि विधि-निषेध
५८२. से भिक्खूवा २ गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावतिकुलं पिंडवातपडियाए निक्खमेज वा पविसेज वा, एवं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा गामागुणामं वा दूइजेजा।
अह पुणेवं जाणेजा तिव्वदेसियं २ वा वासं वासमाणं पेहाए, जहा पिंडेसणाए, णवरं सव्वं चीवरमायाए।
५८२. वह साधु या साध्वी, यदि गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिए जाना चाहे तो समस्त कपड़े (चीवर) साथ में लेकर उपाश्रय से निकले ४ और गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करे। इसी प्रकार बस्ती के बाहर स्वाध्यायभूमि या शौचार्थ स्थंडिलभूमि में जाते समय एवं ग्रामानुग्राम विहार करते समय सभी वस्त्रों को साथ लेकर विचरण करे।
यदि वह यह जाने कि दूर-दूर तक तीव्र वर्षा होती दिखाई दे रही है तो यावत् तिरछे उड़ने वाले त्रसप्राणी एकत्रित होकर गिर रहे हैं, तो यह सब देखकर साधु वैसा ही आचरण करे, जैसा कि पिण्डैषणा-अध्ययन में बताया गया है। अन्तर इतना ही है कि वहाँ समस्त उपधि साथ में लेकर जाने का विधि-निषेध है, जबकि यहाँ केवल सभी वस्त्रों को लेकर जाने का विधि-निषेध है। "
विवेचन- प्रस्तुत सूत्र द्वय में प्रथम सूत्र में भिक्षा, स्वाध्याय,शौच एवं ग्रामानुग्राम विहार १. 'एतच्च सूत्र' जिनकल्पिकोद्देशेन, द्रष्टव्यं, वस्त्रधारित्वविशेषणाद् गच्छान्तर्गतेऽपि चाविरुद्धम्
- आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८७ २. 'तिव्वदेसियं' में सम्बन्धित अपवाद के सम्बन्ध में चूर्णिकार का मत - 'तिव्वदेसितगादिसुण कप्पति'
तीव्र वर्षा आँधी, कोहरा, तूफान आदि में साधु को सब कपड़े लेकर विहारादि करना तो दूर रहा, स्थान से बाहर निकलना भी नहीं कल्पता। सम्पूर्ण वस्त्र साथ में लेकर जाने के सम्बन्ध में तत्कालीन बौद्ध साहित्य का एक उल्लेख पठनीय है। एक भिक्षु अंधवन में चीवर छोड़कर गाँव में भिक्षा के लिये गया। चोर पीछे से चीवर को चुराकर ले गया। भिक्षु मैले चीवर वाला हो गया। जब तथागत के समक्ष यह प्रसंग आया तो तथागत ने कहा- एक ही बचे चीवर से गाँव में नहीं जाना चाहिए। आगे इसी प्रसंग में ५ कारणों से चीवर छोड़कर गाँव में जाने का विधान है-१.रोगी होता है, २. वर्षा का लक्षण मालूम होता है, ३. या नदी पार गया होता है, ४. किवाड़ से रक्षित विहार होता है ,५. या कठिन आस्थित हो गया होता है।
-विनयपिटक (महावग्ग ८/६/१, पृ. २८७-८८) ३. 'जहा पिंडेसणाए' का तात्पर्य है - जैसे पिंडैषणाऽध्ययन सूत्र ३४५ में वर्णन है, वह सब पाठ यहाँ से
आगे समझ लेना चाहिए।