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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
प्राचीन चूर्णियों के अनुसार ऐसा लगता है कि ये सम्बोधन पुरुष के लिए जहाँ निष्ठर वचन थे, वहाँ स्त्री के लिए 'होले' 'गोले' 'वसुले'- मधुर व प्रिय आमन्त्रण भी माने जाते थे। गोल देश में ये आमंत्रण प्रसिद्ध थे। संभवतः ये निम्न वर्ग में 'प्रणय-आमंत्रण' हों, इसलिए भी इनका प्रयोग निषिद्ध किया गया। प्राकृतिक दृश्यों में कथन-अकथन
५३०. से भिक्खूवा २ णो एवं वदेजा-"णभंदेवे ति वा, गजदेवेति वा, विज्जुदेवे ति वा, पवुट्ठदेवे ति वा, णिवुट्ठदेवे ति वा, पडतु वा वासं मा वा पडतु, णिप्पजतु वा सासं मा वा णिप्पज्जतु, विभातु वा रयणी मा वा विभातु, उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ, सो वा राया जयतु (मा वा जयतु)", णो एयप्पयारं भासं भासेज्जा पण्णवं।
५३१. से भिक्खूवा २ अंतलिक्खेति वा, गुज्झाणुचरिते ति वा, संमुच्छिते वा, णिवइए वा पओए वदेज वा वुटुबलाहगे त्ति।।
५३०. संयमशील साधु या साध्वी इस प्रकार न कहे कि 'नभोदेव (आकाशदेव) है, गर्ज (मेघ) देव है, या विद्युतदेव है, प्रवृष्ट (बरसता रहने वाला) देव है, या निवृष्ट (निरंतर बरसने वाला) देव है, वर्षा बरसे तो अच्छा या न बरसे, तो अच्छा, धान्य उत्पन्न हों या न हों, रात्रि सुशोभित (व्यतिक्रान्त) हो या न हो, सूर्य उदय हो या न हो, वह राजा जीते या न जीते।" प्रज्ञावान् साधु इस प्रकार की भाषा न बोले।
५३१. साधु या साध्वी को कहने का प्रसंग उपस्थित हो तो आकाश को गुह्यानुचरित - . अन्तरिक्ष (आकाश) कहे या देवों के गमनागमन करने का मार्ग कहे। यह पयोधर (मेघ) जल देने वाला है, संमूछिम जल बरसता है, या यह मेघ बरसता है, या बादल बरस चुका है, इस प्रकार की भाषा बोले।
विवेचन-प्राकृतिक तत्त्वों को देव कहने की धारणा और साधु की भाषा–वैदिक युग में सूर्य, चन्द्र, रात्रि, अग्नि, जल, समुद्र, मेघ, विद्युत्, आकाश, पृथ्वी, वायु आदि प्रकृति की देनों को आम जनता देव कहती थी, आज भी कुछ लोग इन्हें देव मानते और कहते हैं३, किन्तु १. (क) होले, गोले वसुलेत्ति देसीए लालणगत्थाणीयाणि प्रियवयणामंतणाणि -अगस्त्यसिंह चूर्णि पृ० १६८
(ख) आचार्य जिनदास के अनुसार हले आमन्त्रण का प्रयोग वरदा-तट में, और 'हला' का प्रयोग लाटदेश (मध्य और दक्षिण गुजरात) में होता था। 'भट्टे' शब्द का प्रयोग लाटदेश में नणद के लिए किया जाता था।
- दशवै० जिन० चूर्णि पृ० २५० २. 'विभातु' के बदले 'विभावतु' पाठान्तर है। ३. देखिए प्रश्नोपनिषद् में आचार्य पिप्पलाद का कथन -"तस्मै सहोवाचाकाशो हवा एष देवो वायुरग्निरापः पृथिवी वाड्मनश्चक्षुश्रोत्रं च। ते प्रकाश्याभिवदन्ति वयमेतद् बाणमवष्टभ्य विधारयामः।"
-प्रश्न उपनिषद् प्रश्न २/२