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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ५२२-५२९ २१९ नहीं गई है, या बोली जाने पर भी नष्ट हो चुकी, वह भाषा की संज्ञा प्राप्त नहीं करेगी, वर्तमान में प्रयुक्त भाषा ही 'भाषा संज्ञा' प्राप्त करती है। चार भाषाएँ- १. सत्या (जो भाव, करण, योग तीनों से यथार्थ हो, जैसा देखा, सुना, सोचा, समझा, अनुमान किया, वैसा ही दूसरों के प्रति प्रकट करना), २. मृषा (झूठी), ३. सत्यामृषा (जिसमें कुछ सच हो कुछ झूठ हो) और ४. असत्यामृषा (जो न सत्य है, न असत्य, ऐसी व्यवहारभाषा)। इनमें से मृषा और सत्यामृषा त्याज्य हैं। २ 'अभिकंख' का अर्थ पहले बुद्धि से पर्यालोचन करके फिर बोले। ३ सत्याभाषा भी १२ दोषों से युक्त हो तो अभाषणीय-सूत्र ५२४ में यह स्पष्ट कर दिया है कि 'सत्य' कही जाने वाली भाषा भी १२ दोषों से युक्त हो तो असत्य और अवाच्य हो जाती है। १२ दोष ये हैं - (१) सावद्या (पापसहित, (२) सक्रिया (अनर्थदण्डप्रवृत्तिरूप क्रिया से युक्त) (३)कर्कशा (क्लेशकारिणी, दर्पित अक्षरवाली), (४) निष्ठरा (हक्काप्रधान, जकार-सकार-युक्त निर्दयतापूर्वक डाँट-डपट) (५) परुषा (कठोर, स्नेहरहित, मर्मोद्घाटनपरकवचन), (६) कटुका (कड़वी, चित्त में उद्वेग पैदा करने वाली) (७) आस्रवजनक, (८) छेदकारिणी (प्रीतिछेद करने वाली), (९) भेदकारिणी (फूट डालने वाली, स्वजनों में भेद पैदा करने वाली), (१०) परितापकरी, (११) उपद्रवकरी (तूफान दंगे या उपद्रव करने वाली, भयभीत करने वाली), (१२) भूतोपघातिनी (जिससे प्राणियों का घात हो) । वस्तुतः अहिंसात्मक वाणी ही भाव-शुद्धि का निमित्त बनती है। ४ सम्बोधन में भाषा-विवेक -४ सूत्रों (५२६ से ५२९) द्वारा शास्त्रकार ने स्री-पुरुषों को सम्बोधन में निषिद्ध और विहित भाषा-प्रयोग का विवेक बताया है। ५ होलेत्ति वा गोलेत्ति वा- होल-गोल आदि शब्द प्राचीन समय में निष्ठरवचन के रूप में प्रयुक्त होते थे। इस प्रकार के शब्द सुनने वाले का हृदय दुःखी व क्षुब्ध हो जाता था अतः शास्त्रों में अनेक स्थानों पर इस प्रकार के सम्बोधनों का निषेध है। ७ १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८७ २. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८७ (ख) आचारांग चूर्णि मू० पा० टिप्पण पृ० १७५ (ग) देखिये दशवै० अ०७ गा० ३ की व्याख्या ३. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८७ (ख) पुवं बुद्धीइ पेहित्ता पच्छावयमुदाहरे। अचक्खुओ व नेतारं बुद्धिमन्नउ ते गिरा॥ - दशवै० नियुक्ति गा० २९२ . ४. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८७ ५. (क) आचारांग वृत्ति ३८७ (ख) दशवै० अ०७ गा० ११ से २० तक तुलना के लिए देखें। ६. होलादिशब्दास्तत्तदेश-प्रसिद्धितो नैष्ठुर्यादि वाचकाः। - दशवै० हारि० टीका पत्र २१५ ७. दशवै० ७/१४ में, तथा सूत्रकृतांग (१/९/२७) में -'होलावायं सहीवार्य गोयावायं च नो वदे' आदि सूत्रों द्वारा सूचित किया गया है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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