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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ५२२-५२९ २१७ ५२२. इन पूर्वोक्त भाषागत दोष-स्थानों का अतिक्रमण (त्याग) करके (भाषा का प्रयोग करना चाहिए)। साधु को भाषा के चार प्रकारों को जान लेना चाहिए। वे इस प्रकार हैं - १. सत्या, २. मृषा ३. सत्यामृषा और जो न सत्या है, न असत्या है और न ही सत्यामृषा है यह ४. असत्यामृषा - (व्यवहारभाषा) नाम का चौथा भाषाजात है।। - जो मैं यह कहता हूँ उसे - भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर भगवान् हो चुके हैं, वर्तमान में जो भी तीर्थंकर भगवान् हैं और भविष्य में जो भी तीर्थंकर भगवान् होंगे, उन सबने इन्हीं चार प्रकार की भाषाओं का प्रतिपादन किया है, प्रतिपादन करते हैं और प्रतिपादन करेंगे अथवा उन्होंने प्ररूपण किया है, प्ररूपण करते हैं और प्ररूपण करेंगे। तथा यह भी उन्होंने प्रतिपादन किया है कि ये सब भाषाद्रव्य (भाषा के पुद्गल) अचित्त हैं, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले हैं, तथा चयउपचय (वद्धि-हास अथवा मिलने-बिछडने) वाले एवं विविध प्रकार के परिणमन धर्मवाले हैं। ५२३. संयमशील साधु-साध्वी को भाषा के सम्बन्ध में यह भी जान लेना चाहिए कि बोलने से पूर्व भाषा (भाषावर्गणा के पुद्गल) अभाषा होती है, बोलते (भाषण करते) समय भाषा भाषा कहलाती है बोलने के पश्चात् (बोलने का समय बीत जाने पर ) बोली हुई भाषा अभाषा हो जाती है। ५२४. जो भाषा सत्या है, जो भाषा मृषा है, जो भाषा सत्यामृषा है, अथवा जो भाषा असत्यामृषा है, इन चारों भाषाओं में से (जो मृषा-असत्या और मिश्रभाषा है, उसका व्यवहार साधु-साध्वी के लिए सर्वथा वर्जित है। केवल सत्या और असत्यामृषा - व्यवहारभाषा का प्रयोग ही उनके लिए आचरणीय है।) उसमें भी यदि सत्यभाषा सावध, अनर्थदण्डक्रियायुक्त, कर्कश, कटुक, निष्ठर, कठोर, कर्मों की आस्रवकारिणी तथा छेदनकारी, भेदनकारी, परितापकारिणी, उपद्रवकारिणी एवं प्राणियों का विघात करनेवाली हो तो विचारशील साधु को मन से विचार करके ऐसी सत्यभाषा का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। २२५. जो भाषा सूक्ष्म (कुशाग्रबुद्धि से पर्यालोचित होने पर) सत्य सिद्ध हो तथा जो असत्यामृषा भाषा हो, साथ ही ऐसी दोनों भाषाएँ असावद्य, अक्रिय यावत् जीवों के लिए अघातक हों तो संयमशील साधु मन से पहले पर्यालोचन करके इन्हीं दोनों भाषाओं का प्रयोग करे। ५२६. साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमन्त्रित (सम्बोधित) कर रहे हों और आमन्त्रित करने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार न कहे - अरे होल (मूर्ख) रे गोले! या हे गोल ! अय वृषल (शूद्र)! हे कुपक्ष (दास, या निन्द्यकुलीन) अरे घटदास (दासीपुत्र)! या ओ कुत्ते ! ओ चोर! अरे गुप्तचर! अरे झूठे! ऐसे (पूर्वोक्त प्रकार के) ही तुम हो, ऐसे (पूर्वोक्त प्रकार के) ही तुम्हारे माता-पिता हैं।" विचारशील साधु इस प्रकार की सावध, सक्रिय यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोले।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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