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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
(६) स्पष्ट, किन्तु प्राणघातक, मर्मस्पर्शी, आघात-जनक, (७) द्वयर्थक (दोहरे अर्थ वाली), (८) निरपेक्ष व एकान्त कथन।
"निट्ठाभासी' आदि शब्दों की व्याख्या-निट्ठाभासी– निश्चित करने के बाद भाषण करने वाला, स्पष्ट-भाषी (संदिग्ध, अस्पष्ट, द्वयर्थक, केवल श्रुत या अनुमित भाषा-प्रयोग नहीं करने वाला), अणुवीयि - पहले बुद्धि से निरीक्षण-परीक्षण करके - छानबीन करके। अज्झत्थवयण - आध्यात्मिक कथन, जो शास्त्रीय प्रमाण, अनुभव, युक्ति या प्रत्यक्ष से निश्चित हो, अथवा आत्मा हृदय में स्पष्ट समुद्भूत, स्फुरित या अन्त:करण प्रेरित वचन।
उवणीयवयणं- प्रशंसात्मक वचन, जैसे - यह रूपवान् है। अवणीयवयणं - अप्रशंसात्मक वचन, जैसे - यह रूपहीन है, उवणीतअवणीतवयणं-किसी का कोई गुण प्रशंसनीय है, कोई अवणुण निन्द्य है, उसके विषय में कथन करना, जैसे- यह व्यक्ति रूपवान् है, किन्तु चरित्रहीन है। अवणीत-उवणीतवयणं - किसी के अप्रशस्तगुण के साथ प्रशस्तगुण का कथन करना जैसे - यह कुरूप है, किन्तु है सदाचारी।
इत्थीवेस आदि पदों की व्याख्या - चूर्णिकार ने इत्थीवेसं, पुं-णपुंसगवेसं पाठ मानकर इस प्रकार व्याख्या की है - कोई स्त्री के वेष में जा रही हो तो उसे देखकर यों न कहे कि यह पुरुष जा रहा है। इसी प्रकार पुरुष और नपुंसक के विषय में समझ लेना चाहिए।
दशवैकालिक ७/१५ में भी इसी प्रकार का उल्लेख है कि सत्य दीखने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर कथन करना भी असत्य-दोष है।
इस पर दोनों चूर्णियों तथा हारिभद्रीय टीका में काफी चर्चा की गई है। चूर्णिकार का मत है कि पुरुषवेषधारी स्त्री को देखकर यह कहना कि पुरुष गा रहा है, नाच रहा है, जा रहा हैस-दोष है। जब कि टीकाकार आचार्य हरिभद्र का मत है - पुरुषवेषधारी स्त्री को स्त्री कहना स-दोष है।४
इसका आशय यह लगता है कि जब तक उस विषय में संदेह हो, उसके स्त्री या पुरुष होने का निश्चय न हो, तब तक उसे निश्चित रूप में स्त्री या पुरुष, नपुंसक नहीं कहना चाहिए। यह शंकितभाषा की कोटि में आ जाती है। किंतु रूप-सत्य भी सत्यभाषा का एक प्रकार माना गया है, जिसके अनुसार वर्तमान रूप में जो है, उसे उसी नाम से पुकारना 'रूपसत्य' सत्य - भाषा है।५
१. (क) आचारांग वृत्ति पत्र ३८६ (ख) दशवे० अ० ७ गा० ५-११ २. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८६ (ख) आचारांग चूर्णि मू० पा० पृ० १८९ ३. आचारांग चूर्णि मू० पा० पृ० १९० ४. देखें - (क) अगस्यसिंहचूर्णि पृष्ठ १६५ (ख) जिनदासचूर्णि, पृष्ठ २४६
(ग) हारिभद्रीय टीका पत्र २१४ - दसवेआलियं पृष्ठ ३४९ ५. पन्नवणा पद ११