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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
के लिए वर्जनीय हैं। विवेक अपनाकर साधु इस प्रकार की सावद्य एवं अनाचरणीय भाषाओं का त्याग करे। वह साधु या साध्वी ध्रुव (भविष्यत्कालीन वृष्टि आदि के विषय में निश्चयात्मक) भाषा को जान कर उसका त्याग करे, अध्रुव (अनिश्चयात्मक) भाषा को भी जान कर उसका त्याग करे। वह अशनादि चतुर्विध आहार लेकर ही आएगा, या आहार लिए बिना ही आएगा, वह आहार करके ही आएगा, या आहार किये बिना ही आ जाएगा, अथवा वह अवश्य आया था या नहीं आया था, वह आता है, अथवा नहीं आता है, वह अवश्य आएगा, अथवा नहीं आएगा; वह यहाँ भी आया था, अथवा वह यहाँ नहीं आया था; वह यहाँ अवश्य आता है, अथवा कभी नहीं आता, अथवा वह यहाँ अवश्य आएगा या कभी नहीं आएगा, (इस प्रकार की एकान्त निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग साधु-साध्वी न करे)।
विवेचन- भाषागत आचार-अनाचार का विवेक - प्रस्तुत सूत्र में भाषा के विहित एवं निषिद्ध प्रयोगों का रूप बताया है। इसमें मुख्यतया ६ प्रकार की सावद्यभाषा का प्रयोग निषिद्ध बताया है – (१) क्रोध से, (२) अभिमान से, (३) माया-कपट से, (४) लोभ से, (५) जानते-अजानते कठोरतापूर्वक, और (६) सर्वकाल सम्बन्धी, तथा सर्वक्षेत्र सम्बन्धी निश्चयात्मक रूप से।
उदाहरणार्थ- क्रोध के वश में होकर किसी को कह देना - तू चोर है, बदमाश है, अथवा धमकी दे देना. झिडक देना. मिथ्यारोप लगा देना. आदि। अभिमानवश- किसी से कहना- मैं उच्च जाति का हँ. त तो नीची जाति का है, मैं विद्वान हूँ, तु मुर्ख है, आदि। मायावश– मैं बीमार हूँ, मैं इस समय संकट में हूँ, इस प्रकार कपट करके कार्य से या मिलने आदि से किनाराकसी करना। लोभवश किसी से अच्छा खान-पान, सम्मान या वस्त्रादि पाने के लोभ से उसकी मिथ्या-प्रशंसा करना या सौदेबाजी करना आदि। कठोरतावश– जानतेअजानते किसी को मर्मस्पर्शी वचन बोलना, किसी की गुप्त बात को प्रकट करना, आदि। इसी प्रकार किसी सर्वकाल-क्षेत्र-सम्बन्धी निश्चयात्मक भाषा-प्रयोग के कुछ उदाहरण सूत्र में दे दिये हैं।
विउंजंति की व्याख्या— विविध प्रकार से भाषा प्रयोग करते हैं।' षोडश वचन एवं संयत भाषा-प्रयोग
५२१. अणुवीयि णिट्ठाभासी २ समिताए संजते भासं भासेजा, तंजहा
एगवयणं १, दुवयणं २, बहुवयणं ३, इत्थीवयणं ४, पुरिसवयणं ५, णपुंसगवयणं ६, १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८६ ।। २. 'णिट्ठाभासी' के बदले चूर्णिकार – 'निट्ठभासी' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं- 'निश्चितभाषी
निट्ठाभासी , सम्यक् संजते भाषेत, संकित: मण्णे त्ति, 7 वा जाणामि।' निट्ठाभासी-निश्चितभाषी, यानी निश्चित हो जाने पर ही कहने वाला। संयमी साधु सम्यक् कहे। शंकित व्यक्ति निष्ठाभाषी नहीं होता। शंकित- अर्थात् जानता हूँ या नहीं जानता, इस प्रकार की शंका से ग्रस्त ।