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________________ ततीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक: सूत्र ५१५-५१९ २०५ जाणं वा णो जाणं ति वएज्जा -'जानता हुआ भी मैं नहीं जानता।' इस प्रकार (उपेक्षाभाव) से कहे। साधु को सत्यमहाव्रत भी रखना है और अहिंसा-महाव्रत भी; परन्तु अहिंसा से विरहित सत्य, सत्य नहीं होता, किन्तु अहिंसा से युक्त सत्य ही सद्भ्योहितं सत्यम्प्राणिमात्र के लिए हितकर सत्य–वास्तविक सत्य कहलाता है। इसलिए साधु जानता हुआ भी उन विशिष्ट पशुओं का नाम लेकर न कहे, बल्कि सामान्य रूप से और उपेक्षाभाव से कहे कि 'मैं नहीं जानता।' वास्तव में साधु सब प्राणियों के विषय में जानता भी नहीं, इसलिए सामान्य रूप से 'मैं नहीं जानता' कहने में उसका सत्य भी भंग नहीं होता और अहिंसाव्रत भी सुरक्षित रहेगा। जाणं वा णो...' – इसका एक वैकल्पिक अर्थ यह भी है कि जानता हुआ भी यह न कहे कि "मैं जानता हूँ।" जानता हुआ भी ऐसा कहे कि 'मैं नहीं जानता' यह अपवाद मार्ग है, 'जानता हुआ भी, मैं जानता हूँ ऐसा न कहे ' यह उत्सर्ग मार्ग है। अथवा अन्य प्रकार से कोई ऐसा उत्तर दे कि – प्रश्नकर्ता क्रुद्ध भी न हो एवं मुनि का सत्य एवं अहिंसा महाव्रत भी खण्डित न हो। प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार ऐसा उत्तर दिया जाता है - "जो (मन) जानता है, वह देखता नहीं, जो (चक्षु) देखता है, वह बोलता नहीं, जो (जिह्वा) बोलता है, वह न जानता है, न देखता है। फिर क्या कहा जाय?" ऐसे उत्तर से सम्भव है प्रश्नकर्ता उकताकर, मुनि को विक्षिप्त आदि समझकर आगे चला जाये, और वह समस्या हल हो जाये। सू० ५१२, ५१३ एवं ५१४ की बातें पहले सूत्र ५०० एवं ५०१ में आ चुकी हैं, उन्हीं बातों को पुनः ईर्या और भाषा के सन्दर्भ में यहाँ दोहराया गया है। साधु को यहाँ मौन रहने से काम न चलता हो तो जानने पर भी नहीं जानने का कथन करने का निर्देश किया है। उसका कारण भी पहले बताया जा चुका है। ५१५. से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से गोणं वियालं पडिपहे पेहाए जाव चित्ताचेल्लड़यं वियालं पडिपहे पेहाए णो तेसिं भीतो उम्मग्गेणं गच्छेज्जा, णो मग्गातो मग्गं संकमेजा, णो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसेज्जा, णो रुक्खंसि दुरुहेजा, णो १. (अ) टीका पत्र ३८३ के आधार पर ___ (आ) आचारांग चूर्णि मूल पाठ टिप्पण पृ० १८५-१८६ . २. आचारांग चूर्णि मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक ३८३ के आधार पर ३. यहाँ जाव शब्द से 'गोणं वियालं पडिपहे पेहाए' से लेकर 'चित्ताचेल्लडयं' तक का समग्र पाठ सूत्र ३५४ के अनुसार संकेतित है। _ 'चित्ताचेल्लडयं' के स्थान पर पाठान्तर हैं - 'चिताचिल्लडयं, चित्ताचिल्लडं' आदि। वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं-'चित्रकं तदपत्यं वा व्यालं क्रूरं-द्रष्टवा'-चीता या उसका बच्चा जो क्रूर (व्याल) है, उसे देखकर।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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