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तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ५०४-५०५
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या टेकरे, खाइयाँ, नगर को चारों ओर से वेष्टित करने वाली नहरें, किले, नगर के मुख्य द्वार, अर्गला, अर्गलापाशक, गड्डे, गुफाएँ या भूगर्भ मार्ग तथा कूटागार (पर्वत पर बने घर), प्रासाद, भूमिगृह, वृक्षों को काटछांट कर बनाए हुए गृह, पर्वतीय गुफा, वृक्ष के नीचे बना हुआ व्यन्तरादि चैत्यस्थल, चैत्यमय स्तुप, लोहकार आदि की शाला, आयतन, देवालय, सभा, प्याऊ, दुकान, गोदाम, यानगृह, यानशाला, चूने का, दर्भकर्म का, घास की चटाइयों आदि का, चर्मकर्म का, कोयले बनाने का और काष्ठकर्म का कारखाना, तथा श्मशान, पर्वत, गुफा आदि में बने हुए गृह, शान्तिकर्म गृह, पाषाणमण्डप एवं भवनगृह आदि को बाँहें बार-बार ऊपर उठाकर, अंगुलियों से निर्देश करके, शरीर को ऊँचानीचा करके ताक-ताक कर न देखे, किन्तु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करने में प्रवृत्त रहे।
५०५. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु-साध्वियों के मार्ग में यदि कच्छ (नदी के निकटवर्ती नीचे प्रदेश,) घास के संग्रहार्थ राजकीय त्यक्त भूमि, भूमिगृह, नदी आदि से वेष्टित भू-भाग, गम्भीर, निर्जल प्रदेश का अरण्य, गहन दुर्गम वन, गहन दुर्गम पर्वत, पर्वत पर भी दुर्गम स्थान, कूप, तालाब, द्रह (झीलें) नदियाँ, बावड़ियाँ, पुष्करिणियाँ, दीर्घिकाएँ (लम्बी बावड़ियाँ) गहरे और टेढ़े मेढ़े जलाशय, बिना खोदे तालाब, सरोवर, सरोवर की पंक्तियाँ और बहुत से मिले हुए तालाब हों तो अफ्नी भुजाएँ ऊँची उठाकर, अंगुलियों से संकेत करके तथा शरीर को ऊँचा-नीचा करके ताकताक कर न देखे। केवली भगवान् कहते हैं – यह कर्मबन्ध का कारण है; (क्योंकि) ऐसा करने से जो इन स्थानों में मृग, पशु, पक्षी, साँप, सिंह, जलचर, स्थलचर, खेचर, जीव रहते हैं, वे साधु की इन असंयम-मूलक चेष्टाओं को देखकर त्रास पायेंगे, वित्रस्त होंगे, किसी वाड़ की शरण चाहेंगे, वहाँ रहने वालों को साधु के विषय में शंका होगी। यह साधु हमें हटा रहा है, इस प्रकार का विचार करेंगे।
इसीलिए तीर्थंकरादि आप्तपुरुषों ने भिक्षुओं के लिए पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि बाँहें ऊँची उठाकर या अंगुलियों से निर्देश करके या शरीर को 'ऊँचा-नीचा करके ताक-ताककर न देखे। अपितु यतनापूर्वक आचार्य और उपाध्याय के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ संयम का पालन करे।
विवेचन-विहारचर्या और संयम- इन दो सूत्रों में साधु की विहारचर्या में संयम के विषय में निर्देश किया गया है। साधु-जीवन में प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे प्रेक्षा-संयम, इन्द्रिय-संयम एवं अंगोपांग संयम की बात को बराबर दुहराया गया है। प्रस्तुत सूत्रद्वय में भी साधु को विहार करते समय अपनी आँखों पर, अपनी अंगुलियों पर, अपने हाथ-पैरों पर एवं अपने सारे शरीर पर नियंत्रण रखने की प्ररेणा दी है, साधु का ध्यान केवल अपने विहार या मार्ग की ओर हो। साधु के द्वारा उसके असंयम से होने वाली हानियों की सम्भावना प्रकट करते हुए वृत्तिकार कहते हैं - इस प्रकार के असंयम से साधु के सम्बन्ध में वहाँ के निवासी लोगों को शंका-कुशंका पैदा हो सकती है, कि यह चोर है, गुप्तचर है। यह साधु वेश में अजितेन्द्रिय है।