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________________ १९८ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध वा णूमाणि वा वलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पव्वताणि वा पव्वतविदुग्गाणि वा अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा णदीओ वा वावीओ वा पोक्खरणीओ वा दीहियाओ वा गुंजालियाओ वा सराणि वा संरपंतियाणि वा; सरसरपंतियाणि वा णो बाहाओ पगिझिय २ जाव णिज्झाएजा। केवली बूया - आयाणमेयं। जे तत्थ मिगा वा पसुया वा पक्खी वा सरीसिवा वा सीहा वा जलचरा वा थलचरा वा खहचरा वा सत्ता ते उत्तसेज २ वा, वित्तसेज वा, वाडं वा सरणं वा कंखेजा, चारे ति मे अयं समणे। अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा ४ जं णो बाहाओ पगिज्झिय २ जाव' णिज्झाएजा। ततो संजयामेव आयरिय-उवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जेजा। ५०४. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी मार्ग में आने वाले उन्नत भू-भाग य लगंति, वणं- एकरुक्खजाइयं वा, वण्णदुग्गं- नाणाजातीहि रुक्खेहि, पव्वतो- एव पव्वतो पव्वयाणि वा (मागधभासाए णपुंसगवतणयं) पुव्वयदुग्गाई- बहू पव्वता, अगड-तलाग-दहा अणेगसंठिता, णदी - पउरपाणिया, वावी - वट्टा मल्लगमूला व, पुक्खरिणी -चउरंसा, सरपंतिया -पंतियाए ठिता, सरसरपंतिया-पाणियस्स इमम्मि भरिते इमा वि भरिजति, परिवाडीए पाणियं गच्छति ।'–अर्थात् कच्छाणिजैसे नदी के नीचे भाग कच्छ होते हैं, दवियं-स्वर्ण के चक्रों से युक्त गृह, वलयं-नदी से वेष्टित नगर, णूमं -भूमिगृह, गहणं-गंभीर-गहरा, जिसमें चक्रवर्ती की सेना ऊपर तक समा जाए। वर्ण-जिसमें एक जाति के वृक्ष हों, वणदुग्गं-वह, जिसमें नाना जाति के वृक्ष हों, पव्वयाणि वा-पर्वत शब्द का बहुवचन, (मागधी भाषा में नपुंसक लिंग हो जाता है) पव्वयदुग्गाई- बहुत से पर्वतों के कारण दुर्गम, अगडतलाग-दहा- कूआं, तालाब झील-ये विभिन्न आकार वाले जलाशय हैं। नदी- जिसमें प्रचुर पानी हो, वावी- गोलाकार वापी अथवा सकोरे का आकार जिसके मूल में हो, पुक्खरिणी-चौकोन बावड़ी, सरपंतिया-पंक्तिबद्ध सरोवर, सरसरपंतिया-एक के बाद एक, अनेक सरोवरों की पंक्तियाँ, एक के भर जाने पर दूसरा भी भर जाता है, अनुक्रम से पानी एक के बाद दूसरे में जाता है। 'पसुया वा' के स्थान पर पाठान्तर है- 'पसु वा', 'पसूयाणि वा'। अर्थ एक-सा है। २. 'खहचरा' के स्थान पर पाठान्तर है-'खचरा'। अर्थ समान है। ३. उत्तसेज वा वित्तसेज वा आदि पदों का भावार्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार दिया है-'उत्तसणं ईषत्, वित्तसणं अणेगप्रकारं, वाडं नस्सति, सरणं मातापितिमूलं गच्छति जं वा जस्स सरणं, जहा मियाणं गहणं दिसा व सरणं, पक्खीणं आगासं सिरिसवाणं बिलं। अंतराइयं अधिगरणादयो दोसा।' अर्थात् -उत्तसणं-थोड़ा त्रास, वित्तसणं-अनेक प्रकार का त्रास, वाडं-बाड नष्ट कर देते हैं। सरणं-माता-पिता का मूल शरण होता है, अथवा जिसमें जिसका जन्म होता है, वही उसका शरण होता है। उसी की शरण में वह जाता है। जैसे—हरिणों का शरण गहन वन या दिशाएँ है; पक्षियों का आकाश हैं, साँपों का शरण बिल है। अंतराइयं जो अधिकरण आदि दोष के कारण होता है। ४. यहाँ जाव शब्द सू० ५०४ के अनुसार 'पगिज्झिय' से लेकर 'णिज्झाएज्जा' तक के पाठ का सूचक है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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