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तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र ४९७-५०२
४९९. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग में यदि टेकरे (उन्नत भू- भाग) हों, खाइयाँ, या नगर के चारों ओर नहरें हों, किले हों, या नगर के मुख्य द्वार हों, अर्गलाएँ (आगल) हों, आगल दिये जाने वाले स्थान (अर्गलापाशक) हों, गड्ढे हों, गुफाएँ हों या भूगर्भ-मार्ग हों तो अन्य मार्ग के होने पर उसी अन्य मार्ग से यतनापूर्वक गमन करे, लेकिन ऐसे सीधे - किन्तु विषम मार्ग से गमन न करे। केवली भगवान् कहते हैं • यह मार्ग (निरापद न होने से) कर्म-बन्ध का कारण है ।
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ऐसे विषममार्ग से जाने से साधु-साध्वी का पैर आदि फिसल सकता है, वह गिर सकता है । [ पैर आदि के फिसलने या गिर पड़ने से ] शरीर के किसी अंग-उपांग को चोट लग सकती है, वहाँ जो भी त्रसजीव हों तो, उनकी भी विराधना हो सकती है, कदाचित् सचित्त वृक्ष आदि का तो भी अनुचित है।
अवलम्बन
[ यदि स्थविरकल्पी साधु को कारणवश उसी मार्ग से जाना पड़े और कदाचित् उसका पैर आदि फिसलने लगे या वह गिरने लगे तो ] वहाँ जो भी वृक्ष, गुच्छ ( पत्तों का समूह या फलों का गुच्छा), झाड़ियाँ, लताएँ (यष्टि के आकार की बेलें), बेलें, तृण अथवा गहन ( वृक्षों के कोटर या वृक्षलताओं का झुंड) आदि हो, उन हरितकाय का सहारा ले लेकर चले या उतरे अथवा वहाँ (सामने से) जो पथिक आ रहे हों, उनका हाथ (हाथ का सहारा) मांगे ( याचना करे) उनके हाथ का सहारा मिलने पर उसे पकड़ कर यतनापूर्वक चले या उतरे। इस प्रकार साधु या साध्वी को संयमपूर्वक ही ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए ।
५००. साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार कर रहे हों, मार्ग में यदि जौ, गेहूँ आदि धान्यों के ढेर हों, बैलगाड़ियाँ या रथ पड़े हों, स्वदेश-: - शासक या परदेश- शासक की सेना के नाना प्रकार के पड़ाव (छावनी के रूप में) पड़े हों, तो उन्हें देखकर यदि कोई दूसरा (निरापद) मार्ग हो तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए, किन्तु उस सीधे, (किन्तु दोषापत्तियुक्त) मार्ग से न जाए।
५०१. [ यदि साधु सेना के पड़ाव वाले मार्ग से जाएगा, तो सम्भव है,] उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक से कहे - " आयुष्मन् ! यह श्रमण हमारी सेना का गुप्त भेद ले रहा है, अतः इसकी बातें पकड़ कर खींचो। अथवा उसे घसीटो।" इस पर वह सैनिक साधु को बाहें पकड़ कर खींचने या घसीटने लगे, उस समय साधु को अपने मन में न हर्षित होना चाहिए, न रुष्ट; बल्कि उसे समभाव एवं समाधिपूर्वक सह लेना चाहिए । इस प्रकार उसे यतनापूर्वक एक ग्राम से दूसरे ग्राम विचरण करते रहना चाहिए।
५०२. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में सामने से आते हुए पथिक मिलें और वे साधु से यों पूछें—'आयुष्मान् श्रमण ! यह गाँव कितना बड़ा या कैसा है ? यावत् यह राजधानी कैसी है? यहाँ पर कितने घोड़े, हाथी तथा भिखारी हैं, कितने मनुष्य निवास करते हैं? क्या इस गाँव यावत् राजधानी में प्रचुर आहार, पानी, मनुष्य एवं धान्य हैं, अथवा थोड़े ही आहार, पानी, मनुष्य एवं धान्य हैं? इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाने पर साधु उनका उत्तर न दे। उन प्रातिपथिकों