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________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र ४९८-५०२ जब वह यह जान ले कि अब मेरा शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल की बूँद या जल का लेप भी नहीं रहा है, तभी अपने हाथ से उस शरीर का स्पर्श करे, उसे सहलाए, रगड़े, मर्दन करे यावत् धूप में खड़ा रह कर उसे थोड़ा या अधिक गर्म करे । तत्पश्चात् वह संयमी साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे । - - विवेचन जंघाप्रमाण जल-संतरणविधि विगत पांच सूत्रों में शास्त्रकार ने इस जल को पैरों से ही पार करने की आज्ञा दी है, जो जंघा-बल से चलकर किया जा सके। इसका तात्पर्य यह है कि जो पानी साधक के वक्षस्थल तक गहरा हो, वह जंघा - बल से पार किया जा सकता है, जिस पानी में मस्तक भी डूब जाए, वह पानी जंघा - बल से संतरणीय नहीं होता, क्योंकि उतने गहरे पानी में जंघा-बल स्थिर नहीं रहता। इन पांच सूत्रों में ६ विधियाँ प्रतिपादित की हैं. (१) सिर से पैर तक प्रमार्जन करे, फिर एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखकर सावधानी से चले, (२) उस समय शरीर के अंगोपांगों का परस्पर स्पर्श न करे, (३) शरीर की गर्मी शान्त करने या सुखसाता के उद्देश्य से गहरे जल में प्रविष्ट न हो, (४) उपकरण - सहित पार करने की क्षमता न रहे तो उपकरणों का त्याग कर दे, क्षमता हो तो उपकरण सहित पार कर ले। (५) शरीर पर जब तक पानी का जरा-सा भी अंश रहे, तब तक वह नदी के किनारे ही ठहरे। (६) शरीर पर से पानी जब तक बिलकुल सूख न जाए, तब तक उसके हाथ न लगाए, न घिसे, न मालिश करे, न धूप गर्म करे, जब पानी बिलकुल सूख जाए, तब ईर्यापथ-प्रतिक्रमण करके ये सभी उपचार करे। " अहारियं की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार कहते हैं - - वह भिक्षु यथोक्तविधि से जल में चलते समय विशाल जलवाला जलस्त्रोत हो, जो कि वक्षःस्थलादि प्रमाण हो, जंघा से; संतरणीय नदी, हृद आदि हो तो पूर्व विधि से ही उसमें शरीर को प्रवेश कराए। — २ शारीरिक सुखसाता की दृष्टि से या - सायपडियाए णो परदाहपडियाए का अर्थ है शरीर की जलन को शान्त करने के उद्देश्य से नहीं । ३ १९३ — ३. वही, पत्रांक ३८० विषम-मार्गादि से गमन-निषेध ४९८. से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो मट्टियागतेहिं पाएहिं हरियाणि छिंदि ४ २ विकुज्जिय २ विफालिय २ उम्मग्गेण हरियवधाए गच्छेज्जा 'जहेयं पाएहिं मट्टियं खिप्पामेव हरियाणि अवहरंतु ' । माइट्ठाणं संफासे । जो एवं करेजा । से पुव्वामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलेहेज्जा, २ [त्ता ] ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा । ४९९. से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८० के आधार पर २. वही, पत्रांक ३८० ४. छिंदिय आदि पदों के आगे जहाँ-जहाँ '२' का चिह्न है, वहाँ वह सर्वत्र उसी पद की पुनरावृत्ति का सूचक है।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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