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तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र ४८४-४९१
कर लपेट ले, तथा कुछ वस्त्र अपने सिर के चारों ओर लपेट ले ।
४८६. यदि वह साधु यह जाने कि ये अत्यन्त क्रूरकर्मा अज्ञानी जन अवश्य ही मुझे बाँहें पकड़ नाव से बाहर पानी में फैंकेंगे। तब वह फैंके जाने से पूर्व ही उन गृहस्थों को सम्बोधित करके कहे " 'आयुष्मन् गृहस्थो ! आप लोग मुझे बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में मत फेंको; मैं स्वयं ही इस नौका से बाहर होकर जल में प्रवेश कर जाऊँगा।" साधु के द्वारा यों कहते-कहते कोई अज्ञानी नाविक सहसा बलपूर्वक साधु को बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में फेंक दे तो (जल में गिरा हुआ) साधु मन को न तो हर्ष से युक्त करे और न शोक से ग्रस्त । वह मन में किसी प्रकार का ऊँचा - नीचा संकल्प-विकल्प न करे, और न ही उन अज्ञानी जनों को मारने-पीटने के लिए उद्यत हो । वह उनसे किसी प्रकार का प्रतिशोध लेने का विचार भी न करे । इस प्रकार वह जलप्लावित होता हुआ मुनि जीवन-मरण में हर्ष-शोक से रहित होकर, अपनी चित्तवृत्ति को शरीरादि बाह्य वस्तुओं के मोह से समेटकर, अपने आपको आत्मैकत्वभाव में लीन कर ले और शरीर - उपकरण आदि का व्युत्सर्ग करके आत्म-समाधि में स्थिर हो जाए। फिर वह यतनापूर्वक जल में प्रवेश कर जाए ।
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४८७. जल में डूबते समय साधु या साध्वी (अप्काय के जीवों की रक्षा की दृष्टि से) अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का, एक पैर से दूसरे पैर का, तथा शरीर के अन्य अंगोपांगों का भी परस्पर स्पर्श न करे । वह (जलकायिक जीवों को पीड़ा न पहुँचाने की दृष्टि से) परस्पर स्पर्श न करता हुआ इसी तरह यतनापूर्वक जल में बहता हुआ चला जाए।
४८८. साधु या साध्वी जल में बहते समय उन्मज्जन- निमज्जन ( डुबकी लगाना और बाहर निकलना ) भी न करे, और न इस बात का विचार करे कि यह पानी मेरे कानों में, आँखों में, नाक में या मुँह में न प्रवेश कर जाए। बल्कि वह यतनापूर्वक जल में (समभाव के साथ) बहता जाए। ४८९. यदि साधु या साध्वी जल में बहते हुए दुर्बलता का अनुभव करे तो शीघ्र ही थोड़ी या समस्त उपधि (उपकरण) का त्याग कर दे, वह शरीरादि पर से भी ममत्व छोड़ दे, उन पर किसी प्रकार की आसक्ति न रखे ।
४९०. यदि वह यह जाने कि मैं उपधि सहित ही इस जल पार होकर किनारे पहुँच जाऊँगा, तो जब तक शरीर से जल टपकता रहे तथा शरीर गीला रहे, तब तक वह नदी के किनारे पर ही खड़ा रहे ।
४९१. साधु या साध्वी जल टपकते हुए, जल से भीगे हुए शरीर को एक बार या बार-बार हाथ से स्पर्श न करे, न उसे एक या अधिक बार सहलाए, न उसे एक या अधिक बार घिसे, न उस पर मालिश करे और न ही उबटन की तरह शरीर से मैल उतारे। वह भीगे हुए शरीर और उपधि को सुखाने के लिए धूप से थोड़ा या अधिक गर्म भी न करे ।