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ईयाः तृतीय अध्ययन
प्राथमिक आचारांग द्वितीय श्रतुस्कन्ध के तृतीय अध्ययन का नाम 'ईर्या' है। - ईर्या का अर्थ यहाँ केवल गमन करना नहीं है। अपने लिए भोजनादि की तलाश में तो
प्रायः सभी प्राणी गमन करते हैं, उसे यहाँ 'ईर्या' नहीं कहा गया है। यहाँ तो साधु के द्वारा किसी विशेष उद्देश्य से कल्प-नियमानुसार संयमभावपूर्वक यतना एवं विवेक से
चर्या (गमनादि) करना ईर्या है। . इस दृष्टि से यहाँ 'नाम-ईर्या', 'स्थापना-ईर्या' तथा 'अचित्त-मिश्र-द्रव्य-ईर्या' को छोड़
साधु के द्वारा 'सचित्त-द्रव्य-ईर्या', क्षेत्र-ईर्या तथा काल-ईर्या से सम्बद्ध भाव-ईर्या विवक्षित है। चरण ईर्या और संयम-ईर्या के भेद से भाव-ईर्या दो प्रकार की होती है। अत: -
स्थान, गमन, निषद्या और शयन इन चारों का समावेश ईर्या में हो जाता है। 0 साधु का गमन किस प्रकार से शुद्ध हो? इस प्रकार के भाव रूप गमन (चर्या) का जिस
अध्ययन में वर्णन हो, वह ईर्या-अध्ययन है। . इसी के अन्तर्गत किस द्रव्य के सहारे से, किस क्षेत्र में (कहाँ) और किस समय में
(कब), कैसे एवं किस भाव से गमन हो? यह सब प्रतिपादन भी ईर्या-अध्ययन के
अन्तर्गत है। __ धर्म और संयम के लिए आधारभूत शरीर की सुरक्षा के लिए पिण्ड और शय्या की तरह ईर्या की भी नितान्त आवश्यकता होती है। इसी कारण जैसे पिछले दो अध्ययनों में क्रमशः पिण्ड-विशुद्धि एवं शय्या-विशुद्धि का तथा पिण्ड और शय्या के गुण-दोषों का वर्णन किया गया है, वैसे ही इस अध्ययन में 'ईर्या-विशद्धि' का वर्णन किया गया है जो (१) आलम्बन, (२) काल, (३) मार्ग (४) यतना – इन चारों के विचारपूर्वक गमन से होती है। यही ईर्या-अध्ययन का उद्देश्य है।
१. (क) आचा० टीका पत्र ३७४ के आधार पर
(ख) आचारांग नियुक्ति गा० ३०५, ३०६ २. (क)आचारांग नियुक्ति गा० ३०७
(ख)आचा० टीका पत्र ३७४ ३. आचा० टीका पत्र ३७४