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द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ४५८
१६३ प्रतिमा वह है, जिसमें पृथ्वीशिला, पाषाणशिला, काष्ठशिला, ये शिलाएँ भारी होने से भूमि से लगी हुई होनी चाहिए।
णेसजिए- का अर्थ वृत्तिकार ने किया है - निषद्यापूर्वक यानी पद्मासन आदि आसन से बैठकर।
. इन सब संस्तारकों को ग्रहण करने की आज्ञा अधिक सजल प्रदेशों के लिए है। २ संस्तारक प्रत्यर्पण-विवेक
४५८.[१] से भिक्खू वा २ अभिकंखेजा संथारगं पच्चप्पिणित्तए ३ । से जं पुण संथारगं जाणेजा सअंडं जाव संताणगं, तहप्पगारं संथारगं णो पच्चप्पिणेजा। ,
[२] से भिक्खू वा २ अभिकंखेजा संथारगं पच्चप्पिणित्तए। से जं पुण संथारगं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं, तहप्पगारं संथारगं पडिलेहिय २ पमज्जिय २ आताविय २ विणिद्धणिय २ ततो संजतामेव पच्चप्पिणेजा।
__ ४५८. [१] वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि (लाया हुआ) संस्तारक (दाता को) वापस लौटाना चाहे, उस समय यदि उस संस्तारक को अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त जाने तो इस प्रकार का संस्तारक (उस समय) वापस न लौटाए।
[२] वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि (लाया हुआ) संस्तारक (दाता को) वापस सौंपना चाहे, उस समय उस संस्तारक को अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित जाने तो, उस प्रकार के संस्तारक को बार-बार प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके, सूर्य की धूप देकर एवं यतनापूर्वक झाड़कर, तब गृहस्थ (दाता) को संयत्नपूर्वक वापस सौंपे।
विवेचन-संस्तारक को वापस लौटाने में विवेक-इस सूत्र में संस्तारक - प्रत्यर्पण के समय साधु का ध्यान तीन बातों की ओर खींचा है -
[१] यदि प्रातिहारिक संस्तारक जीव-जन्तु, अण्डों आदि से युक्त है तो उस समय उसे न लौटाए।
१. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३७२
(ख) आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पणी पृ० १६५ (ग) आचारांग अत्थागमे प्रथम खण्ड, पृ० ११३
(घ) पाइअ-सद्द-महण्णवो २. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३७३ के अनुसार ३. पच्चाप्पिणित्तए के स्थान पर पाठान्तर हैं- पच्चाप्पिणियत्तए, पच्चपिणिपत्तए, पच्चणियत्तए। अर्थ
समान हैं। ४. विणिद्धणिय के स्थान पर पाठान्तर है -विहुणिय। चूर्णिकार ने 'विणिद्धणय' पद का भावार्थ दिया
है- 'विणिद्धणिय.....चलिय-पच्चाप्पिणेजा।' अर्थात् - उसे हिलाकर या झाड़कर वापस सौंपे या लौटाये।