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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
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दूसरे को नहीं, (३) विद्यमान- - यदि उद्दिष्ट और दृष्ट संस्तारक शय्यातर के घर में मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्य स्थान से लाकर उस पर शयन नहीं करूँगा, और (४) यथासंस्तृतरूपा यदि उपाश्रय में सहज रूप से रखा या बिछा हुआ पाट आदि संस्तारक मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं।'' साधु चारों में से कोई भी एक प्रतिज्ञा ग्रहण कर सकता है । १
इक्कड आदि पदों के अर्थ – इक्कडं इक्कड़ नामक तृण विशेष, या इस घास से निर्मित चटाई आदि, कढिणं—वासं, छाल आदि से बना हुआ कठोर तृण, या कढिणक नामक घास, कंधम आदि का बिछाने का तृण, जंतुयं—जंतुक नामक घास, परगं— मुण्डक— पुष्पादि के गूँथ में काम आने वाला तृण, मोरगं — मोरपिच्छ से निष्पन्न या मोरंगा नाम की तृण की जाति, तणगं- सभी प्रकार के घास (तृण), कुसं – कुश या दर्भ, कुच्चगं - कूर्चक, जिससे कूँची आदि बनाई जाती है, उसका बना हुआ । वव्वगं • पिप्पलक या वर्वक नामक तृण विशेष, पलालगं— धान का पराल ।
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अहासंथा की व्याख्या चूर्णिकार ने यों की है. अहासंथडा – यथासंस्तृत संस्तारक
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१.
(क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३७२
(ख) इन चारों प्रतिमाओं की व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की है।
प्रथम और द्वितीय प्रतिमा की व्याख्या - -'उद्दिट्ठे कताइ छिंदित्तु आणेज्ज तेण पेहा विसुद्धतरा, पेहा णामपिक्खित्तु 'एरिसगं देहि ' बितिया पडिमा ।" उद्दिष्टा में कदाचित् उस वस्तु को काट कर ले आए, इसलिए प्रेक्षा उससे विशुद्धतर है। प्रेक्षा कहते हैं. किसी संस्तारक योग्य वस्तु को देखकर 'मुझे ऐसी ही वस्तु दो'यह दूसरी प्रतिमा है।
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तीसरी प्रतिमा की व्याख्या "ततिया अधासमण्णागता णाम जति बाहि वसति बाहिं चेव इक्कादि, णो अंतो साहीओ णो वेसणीओ आणेयव्वं, अह अंतो वसति अंतो चेव, इक्कडादि वा णत्थि तो उक्कड गणेसज्जिओ विहरेज्जा ।"
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तीसरी 'अहासमण्णागता' (यथासमन्वागता) प्रतिमा इस प्रकार है • यदि वसति ( शय्या) गाँव से बाहर है तो इक्कड़ आदि घास बाहर ही मिलेगा तो लेगा, अन्दर से बनाया हुआ या एषणीय घास नहीं लाएगा, या नहीं मंगाएगा। यदि उपाश्रय गाँव के अन्दर है तो वह इक्कड़ आदि अन्दर से ही लेगा, बाहर से लाया हुआ, एषणीय भी नहीं लेगा। यदि इक्कडादि घास अन्दर नहीं मिलता है तो वह उत्कटुक आसन या पद्मासन आदि से बैठकर सारी रात बिताएगा।
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चौथी अहासंथडा प्रतिमा की व्याख्या - " तत्थत्था अहासंथडा पुढविसिला ओयट्टओ, पासाणसिला, कट्ठसिला वा । सिलाए : - गहणा गरूयं अहासंथडगहणा भूमीए लग्गगं चेव । "- चौथी संस्तारक प्रतिमा यों हैं जो जैसा संस्तारक है, वैसा ही स्वाभाविक रूप से रहे यही यथासंस्तृत संस्तारकप्रतिमा का आशय है। जैसे पृथ्वीशिला - मिट्टी की कठोर बनी हुई शिला, पाषाणशिला या काष्ठ की बनी हुई शिला। यहाँ शिलापट के ग्रहण करने के कारण 'भारी' भी ग्राह्य है तथा 'अहासंथडा' पद के ग्रहण करने से जो संस्तारक भूमि से लगा हो, वह भी ग्राह्य है।