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नीचे दरवाजों वाले या नीची छत के या अंधेरे बाले उपाश्रय में बिना कारण न ठहरे, (२) जहाँ पहले से ही अनेक अन्यमतीय श्रमणों या माहनों की भीड़ हो, वहाँ भी बिना कारण न ठहरे, (३) कारणवश ऐसे मकान में ठहरना पड़े तो रात में या सन्ध्याकाल में जाते-आते समय किसी वस्तु या व्यक्ति के जरा-सी भी ठेस न लगाते हुए हाथ या रजोहरण से टटोलकर चले, अन्यथा वस्तु को या दूसरों को अथवा स्वयं को हानि पहुँचने की सम्भावना है। इस प्रकार के विवेक और सावधानी बताने के पीछे शास्त्रकार का आशय अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा से है । अन्य श्रमणों या भिक्षाचरों को भी निर्ग्रन्थ साधुओं के व्यवहार से जरा-सा भी मनोदुःख न हो, न घृणा हो, साथ ही अपना भी अंग-भंग आदि होने से आर्तध्यान न हो, इसी दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र में विवेक और सावधानी का निर्देश है।
१
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध
उपाश्रय-याचना विधि
२
४४५. से आगंतारेसु वा ४ अणुवीयी उवस्सयं जाएजा रे । जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाधिट्ठा ४ ते उवस्सयं अणुण्णवेजा • कामं खलु आउसो ! आहालंदं अहापरिण्णातं वसिस्सामो, जाव आउसंतो, जाव आउसंतस्स उवस्सए, जाव साहम्मिया, ५ एत्ताव ता उवस्सयं गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो ।
४४६. से भिक्खू वा २ जस्सुवस्सए संवसेज्जा तस्स पुव्वामेव णामगोत्तं ६ जाणेज़ा,
१. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३६९ के आधार पर ।
२. 'आगंतारेसु वा' के बाद '४' का चिह्न सूत्र ४३२ के 'आगंतारेसु वा' से 'परियाव सहेसु' तक के पाठ का सूचक है।
३. जाएजा के स्थान पर जाणेज्जा पाठ किसी-किसी प्रति में मिलता है।
४. समाधिट्ठाए के स्थान पर समाहिट्ठाए पाठ मानकर चूर्णिकार अर्थ करते हैं
५.
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-समाहिट्ठाए
भुसंदि
नियुक्त |
स्वामी के द्वारा आदिष्ट जाव साहम्मिया आदि पंक्ति की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं. - " जत्तिया तुमं इच्छसि जे वा तुमं भणसि णामेणं असुओ गोत्तेणं विसेसितो, कारणे एवं णिक्कारणे ण ठायंति, तेण परं जति तुमं उविट्टिज्जिहिसि ण वा तव रोइहिहि उवस्सओ वा भज्जिहिति परेण विहरिस्सामो।"
जब तक तुम चाहते हो, या जिन साधुओं का नाम लेकर अथवा जिस गोत्र से विशिष्ट बताया है, वे कारणवश उतने ही, उसी (उतने ही) स्थान में ठहरेंगे, बिना कारण नहीं रहेंगे। उस अवधि के पश्चात् यदि तुम इसे खाली कराओगे, या तुम्हें पसन्द न होगा या उपाश्रय का दूसरे कोई उपयोग करेंगे, तो हम विहार कर देंगे। "
६. णामगोत्तं जाणेज्जा का आशय चूर्णिकार बताते हैं- - " णामगोत्तं जाणेत्ता भत्तपाणं ण गिण्हिति । " साधु ( शय्यातर का) नाम गोत्र जानकर उसके घर का आहार- पानी नहीं लेता है।
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