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________________ १५० आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध लेने का आग्रह करता है, लेने पर मुनि को शय्यांतरपिण्ड-ग्रहण नामक दोष लगता है, न लेने पर मुनि के प्रति उसके मन में रोष, द्वेष, अवज्ञा आदि होना संभव है। 'वियागरमाणे समिया वियागरेइ?' इस पंक्ति का आशय चूर्णिकार यों बताते हैं - . उपाश्रय के गुण-दोष बताने वाला निष्कपट भद्र साधु सम्यक् कथन करता है? अर्थात् कर्म-बन्धन से लिप्त नहीं होता? इसके उत्तर में कहते हैं, 'हाँ वह ठीक ही कहता है। अर्थात् कर्मबन्ध से लिप्त नहीं होता।' निष्कर्ष यह है कि भावुक गृहस्थ साधु के कथन पर से उपाश्रय निर्माण के लिए जो भी आरम्भ-समारम्भ करता है, उस पापकर्म का भागी उपाश्रय के दोष बताने वाला साधु नहीं होता। उपाश्रय में यतना के लिए प्रेरणा.. F TER अ .... ४४४. से भिक्खू वा २ से ज्ज पुण छवस्सयाजाणेज्जा-खुड्डियाओ खुड्डदुवारियाओ णितियाओ संणिरुद्धाओ भवंति, तहप्पगारे उवस्सए राओ वा विधाले वा णिक्खममाणे वा पविसमाणे वा पुराहत्थेण पच्छापाएण ततो संजयामेव णिक्खमेज वा पविसैज वा। केवली बूया आयाणमेतं। जे तथ्य समणाण २ वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए १. आचारांग चूर्णि में देखिए - स एवं साहू अक्खायमाणो सम्यक् अक्खाति, ण लिप्पति कम्मबंधेणं? अस्स गाहा (१) वागरणं-हंता! सम्यक् भणति, ण लिप्पति कम्मबंधेण इत्यर्थः। २. खुड्डियाओ आदि पदों की व्याख्या चूर्णि में इस प्रकार है - खुड्डि - खुड्डि एव दुवार संनिरुद्धं खुडलगं वा। णिच्चिताओ, ण उच्चाओ। संनिरुद्धा साधुहिं अन्नेहि वा भरितिया, अहवा खुडुलिया चेव भण्णांति संणिरुद्धया। एतासु दिवा विण कप्पति, कारणठियाणं, जयराति विगाला भणिता। पुराहत्थेण रयहरणेण, हत्थोपचारं कृत्वा। पच्छा पादं करेजा। अर्थात् खुड्डि ।। छोटा, दुवारं -द्वार है, संनिरुद्ध-बन्द है, अथवा क्षुद्रक है। णिच्चिताओ-अंचा नहीं है। संनिरुद्धा दूसरे साधुओं से भरा पड़ा है, अथवा छोटे-से मकान को ही संविस्यक चारों ओर सेमेन्द्र कहते हैं। ऐसे मकानों में दिन में भी रहना नहीं कल्पता.। कारणवश रहने वाले साधुओं के लिए यह यतना रात्रि और विकाला (सन्ध्या) के लिए बताई है। पुराहत्थेण रजोहरण से हाथ का उपचार करके पहले टोले, पच्छापाएण-फिर पैर उठाए। "जे तत्थ समणाण वा-" आदि पदों की व्याख्या चूर्णि में इस प्रकार की है-के च दोसा? समणा पंच,माहणा धीयारा अहवा सावगा, छत्तं छसमेव, मत्तए उच्चारादि,भण्डए वा पादणिजोगो सव्वं वा उवगरणं, लट्ठी आयप्पमाणा, भिसित्ता कट्ठमयी, भिसिगाभिसिगा चेव, चेलग्गहणा वत्थ, च (छि) लिमणी दोरो, चम्मए मिगचम्म उवाहणाओ वा, चम्मकोसओं खलओ अंगुट्ठकोसएं वा, चम्मच्छेदणयं-वब्भो।" अर्थात् -वे दोष कौन-से? समणा-५ प्रकार के प्रमण, माहणाब्राह्मण या श्रावक, छत्त-छत्रक (छाता), मत्तए-उच्चारादि के लिए तीत भाजन, भंडए पात्रनिर्योग (पात्र व इससे सम्बन्धित सामान) या समस्त उपकरण, लट्ठी-अपनी ऊँचाई के बराबर भिसित्ता - काष्ठमय आसन अथवा ऋषि-आसन (वृषिका), चेल- वस्त्र, चिलमिरी-रस्सा या मच्छरदानी, यवनिका । चम्मए-मृगचर्म अथवा चमड़े के जूते । चम्मकोसओ-चमड़े का थैला, खलीता या चमड़े का मोजा, चम्मच्छेदणए-चमड़े का वस्त्र/पट्टा।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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