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________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीक उद्देश्यक सूत्र ४४३ १४७ रियारते गणरते मिसीहियास्ते सेजा-संथार-पिंडवातेसणारते, संति भिक्खुणो एवमक्खाइणो उज्जुकडा।-णियागपडिवण्णा अमायं कुव्वमाणा वियाहिता। संतेगतिया पाहुडिया उक्खित्तपुचारे भवति, एवं मिक्खित्तपुव्वा भवति, परिभाइयपुव्वा भवति, परिभुत्तपुवा भवति, पस्छिवियपुव्या भवति, एवं वियागरेमाणे समिया वियागरेइ? हंता भवति। ४४३. वह प्रासुक, उंछ और एषणीय उपाश्रय सुलभ नहीं है। और न ही इन सावद्यकर्मों (पापयुक्त क्रियाओं) के कारण उपाश्रय शुद्ध (निर्दोष) मिलता है, जैसे कि कहीं साधु के निमित्त उपाश्रय का छप्पर छाने से या छत डालने से, कहीं उसे लीपने-पोतने से, कहीं संस्तारकभूमि सम करने से, कहीं उसे बन्द करने के लिए द्वार लगाने से, कहीं शय्यातर गृहस्थ द्वारा साधु के लिए आहार बनाकर देने से एषणादोष लगाने के कारण। .. [कदाचित उक्त दोषों से, रहित उपाश्रय मिल भी जाए, फिर भी साधु की आवश्यक व पाठं पडिस्मयं करे। (इ?! एवं नो सुलभे फासुए। उंछे।णय सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं-ति कारणेहिं, काणि ता ताणि? छावणं गलमाणीते कुड्डमाणीते, भूमीते वा लेवणं, संथारओ उयट्टगो दुवारा खुड्डुगा महल्लगा करेंति, पिहणं वाडस्स दारस्स वा, पिंडवातं वा मम गिण्ह, ण दोसा। अर्थात् यहाँ प्रसंग अप्रासुक उपाश्रयों का विवेक और प्रासुकों का ग्रहण करना है। वहीं प्रासुक उपाश्रय सुलभ नहीं है। आहार की शोध सुखपूर्वक हो सकती है, वसति की दुःखपूर्वक। कोई श्रावक भेद्र' साधु से पूछता है- साधु इस गाँव में क्यों नहीं दिकते? वह कहता है-- उपाश्रय नहीं है। साधु के लिए श्रावक उपाश्रय बनवाते हैं। इस कारण प्रासुक और उंछ उपाश्रय सुलभ नहीं हैं। इन सावध युक्त कारणों (प्राभृतों) से उपाश्रय शुद्ध (निर्दोष) नहीं रहता-वे कौन से कारण हैं? वे ये हैं- साधु के लिए मकान के गले (ऊपर के सिरे) से लेकर या दीवार से लेकर उस पर छप्पर छी देना, या छत डाल देना, जमीन (फर्श) पर लीपना, संस्तारकः भूमि को कूट-पीट कर चूर-चूर कर डालना, छोटे दरवाजों को बड़े बनाना, बाड़े या दरवाजे को ढकना या किवाड़ बनाना, फिर शय्यातर गृहस्थ की ओर आहार लेने का आग्रह, न लो तो द्वेषभाव। ये सब सावद्यकर्मरूप कारण हैं। ...... 'उज्जकुडा' के स्थान पर पाठान्तर है- उज्जयकडा, उज्जुयडा, उजुअडा, उजुया आदि। 'णियोगपडिवण्णा का अर्थ चूर्णिकार ने किया है-चरित्तपंडिवण्णा -चारित्रप्रतिपन्न- मोक्षार्थी। 'उक्खितपुव्वा आदि पदों की व्याख्या चूर्णिकार के शब्दों में देखिए "सो गिहत्थो मज्झ अस्सिं भित्ति, एकेषां एगता उक्खित्तपव्वा पढम साहणं उक्खिवति अग्गे भिक्खं हिंडताणं... उक्खित्तषव्या, मा एवं चरगादीणं देहापरिभुत्तपुव्वा तं अप्पणा भुंजंति साहूण य देंति, परिवियपुव्वा अच्चणियं करेंति।" - अर्थात् "वह गृहस्थ ये सोचकर कि मेरी इन पर भक्ति है, कई साधुओं के लिए पहले से उस मकान कों अलग स्थापित कर (रख )देता है; भिक्षा के लिए घूमते हुए साधुओं को देखकर कहता है -"यह मकान चरकादि परिव्राजकों को मत देना, ऐसी शय्या उत्क्षिप्तपूर्वा है। परिभुत्तपुव्वा - जिसका पहले स्वयं उपभोग कर लेता है, फिर साधुओं को देता है। परिछवियपुव्बा-- साधुओं के लिए खाली कराकर उस मकान को अर्चनीय- मुहर बना देता है। य ह TOP
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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