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________________ १३६ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध में या स्थान में निवास करने से उन सब जीवों को पीड़ा होगी, वे साधु की जरा सी असावधानी से दब या मर सकते हैं, यहाँ तक कि उन्हें स्पर्श करने से भी उन्हें दुःख हो सकता है। वनस्पति सजीव है, पानी में भी जीव है, यह बात वर्तमान जीव वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके सिद्ध कर दी है। इसी कारण साधु को ऐसे उपाश्रय में रहकर कोई भी क्रिया करना निषिद्ध बताया है। साथ ही जीवों से रहित शुद्ध, निर्दोष स्थान हो तो वहाँ निवास करने का विधान किया पलालपुंजेस– चावलों की घास को पराल या पुआल कहते हैं, उनके ढेर को पाललपुंज कहते हैं। ४ नवविध शय्या-विवेक ___४३२. से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं २ साहम्मिएहिं ओवयमाणेहिं वा ओवतेजा। २ ४३३. से आगंतारेसु वा ३ ४ जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणित्ता तत्थेव भुजो संवसंति अयमाउसो कालातिक्कंतकिरिया वि भवति। ४३४. से आगंतारेसु वा ४ से भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तं दुगुणा दुगुणेण अपरिहरित्ता तत्थेव भुजो संवसंति अयमाउसो उवट्ठाणकिरिया यावि भवति। ४३५. इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया सड्ढा भवंति, तंजहा- गाहावती वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवति, तं सहहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं बहवेसमण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थर अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तंजहा - आएसणाणि ५ वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाणि वा पवाणि वा पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा जाणगिहाणि १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३६५ के आधार पर। २. णो आवतेज्जा के स्थान पर पाठान्तर हैं-'णो वएजा,णो य वतेज्जा'। वृत्तिकार अर्थ करते हैं - 'नावपतेत्'- वहाँ मासकल्पादि निवास न करे। ३. आगंतारेसु वा के बाद '४' का चिह्न 'आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा' तक के पाठ का सूचक है, सूत्र ४३२ के अनुसार । ४. पाईणं वा के बाद '४' का अर्थ शेष तीनों दिशाओं का सूचक है। ५. चूर्णिकार के शब्दों में आएसणाणि आदि पदों की व्याख्या आएसणाणि- छरण सिझंति वण्णि बुझंति, अहवा लोहारसालमादी। आयतणं- पासंडाणं अवच्छत्तिया कुड्डुस्स पासे । देवउलं-वाणमंतररहितं, देउलं-सवाणमंतरं सपडिमं इत्यर्थः। सभा- मंडबो वलभी वा सवाणमंतरा इतरा वा। पवा- जत्थ पाणितं दिज्जइ । पणितगिहं- आवणो सकुड्डुओ। पणियसाला- आवणो चेव अकुड्डुओ, जाणगिह-रहादीण वासकुड्ड, साला- एएसिं चेव अकुड्डा। छुहा-(सुधा), कड़ा, छुहा जत्थ कोहाविज्जति वा, दब्भा- दब्भा वलिज्जति छिज्जति वा। वव्वओ विप्पि(छि) जंति वलिज्जति य।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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