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________________ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध (१) (गृहस्थ-संसक्त मकान में ठहरने पर) वह भिक्षु या भिक्षुणी रात में या विकाल मल-मूत्रादि की बाधा ( हाजत) होने पर गृहस्थ के घर का द्वारभाग खोलेगा, उस समय कोई चोर या उसका सहचर घर में प्रविष्ट हो जाएगा, तो उस समय साधु को मौन रखना होगा । ऐसी स्थिति में साधु के लिए ऐसा कहना कल्पनीय नहीं है कि यह चोर प्रवेश कर रहा है, या प्रवेश नहीं कर रहा है, यह छिप रहा है या नहीं छिप रहा है, नीचे कूद रहा है या नहीं कूदता है, बोल रहा है या नहीं बोल रहा है, इसने चुराया है, या किसी दूसरे ने चुराया है, उसका धन चुराया है अथवा दूसरे का धन का चुराया है; यही चोर है, या यह उसका उपचारक (साथी) है, यह घातक है, इसी ने यहाँ यह ( चोरी का ) कार्य किया है। और कुछ भी न कहने पर जो वास्तव में चोर नहीं है, उस तपस्वी साधु पर (गृहस्थ को ) चोर होने की शंका हो जायेगी। इसीलिए तीर्थंकर भगवान् ने पहले से ही साधु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह गृहस्थ से संसक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करे । १३४ विवेचन — गृहस्थ-संसक्त, उपाश्रय : अनेक अनर्थों का आश्रय- • पूर्व उद्देशक में भी शास्त्रकार ने गृहस्थ संसक्त उपाश्रय में निवास को अनेक अनर्थों की जड़ बताया था। इस उद्देश्य के प्रारम्भ में फिर उसी गृहस्थ- संसक्त उपाश्रय के दोषों को विविध पहलुओं से शास्त्रकार समझना चाहते हैं । सूत्र ४२७ से ४३० तक इसी की चर्चा । इन सूत्रों में चार पहलुओं से गृहस्थ-संसक्त निवास के दोष बताए गए 1 (१) साफ-सुथरे रहने वाले व्यक्ति के मकान में साधु के ठहरने पर परस्पर एक-दूसरे के प्रति शंका-कुशंका से खिंचे-खिंचे रहेंगे, दोनों के कार्य का समयचक्र उलट-पुलट हो जाएगा। (२) गृहस्थ अपने लिए भोजन बनाने के बाद साधुओं के लिए खासतौर से भोजन बनाएगा, साधु स्वादलोलुप एवं आचारभ्रष्ट हो जाएगा। (३) साधु के लिए गृहस्थ ईन्धन खरीदेगा या किसी तरह जुटाएगा, अग्नि में जलाएगा, साधु भी वहाँ रहकर आग में हाथ सेंकने लगेगा । (४) मकान में चोर घुस जाने पर साधु संकट में पड़ जायेगा कि गृहस्थ को कहे कि न कहे। दोनों में ही दोष है । ओर इस प्रकार के अन्य खतरे गृहस्थ- संसक्त मकान में रहते हैं, इसलिए यहाँ भी शास्त्रकार ने तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट प्रतिज्ञा और उपदेश को बारम्बार दुहराकर साधु को चेतावनी दी है । १ चूर्णिकार ने इन सूत्रों का रहस्य अच्छे ढंग से समझाया है । १. टीका पत्र ३६४ के आधार पर २. आचारांग चूर्णि, देखिए मूलपाठ टिप्पण
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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