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द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ४२७-४30
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हडं, तस्स हडं, अण्णस्स हडं, अयं तेणे, अयं उवचरए, अयं हंता, अयं एत्थमकासी। तं तवस्सिं भिक्खं अतेणं तेणमिति संकति।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा १ ४ जाण णो चेतेजा।
४२७. कोई गृहस्थ शौचाचार-परायण होते हैं और भिक्षुओं के स्नान न करने के कारण तथा मोकाचारी होने के कारण उनके मोकलिप्त शरीर और वस्त्रों से आने वाली वह दुर्गन्ध उस गृहस्थ के लिए प्रतिकूल और अप्रिय भी हो सकती है। इसके अतिरिक्त वे गृहस्थ (स्नानादि) जो कार्य पहले करते थे, अब भिक्षुओं की अपेक्षा (लिहाज) से बाद में करेंगे और जो कार्य बाद में करते थे, वे पहले करने लगेंगे अथवा भिक्षुओं के कारण वे असमय में भोजनादि क्रियाएँ करेंगे या नहीं भी करेंगे। अथवा वे साधु उक्त गृहस्थ के लिहाज से प्रतिलेखनादि क्रियाएँ समय पर नहीं करेंगे. बाद में करेंगे. या नहीं भी करेंगे। इसलिए तीर्थंकरादि ने भिक्षुओं के लिए पहले से ही यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु कारण और उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के (गृहस्थ-संसक्त) उपाश्रय में कायोत्सर्ग, ध्यान आदि क्रियाएँ न करें।
४२८. गृहस्थों के साथ (एक मकान में) में निवास करने वाले साधु के लिए वह कर्मबन्ध का कारण हो सकता है, क्योंकि वहाँ (उस मकान में) गृहस्थ ने अपने निज के लिए नानाप्रकार के भोजन तैयार किये होंगे, उसके पश्चात् वह साधुओं के लिए अशनादि चतुर्विध आहार तैयार करेगा, उसकी सामग्री जुटाएगा। उस आहार को साधु भी खाना या पीना चाहेगा या उस आहार में आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा। इसलिए भिक्षओं के लिए तीर्थंकरों ने पहले से यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु कारण और उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के (गृहस्थसंसक्त) उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे।
४२९. गृहस्थ के साथ (एक मकान में) ठहरने वाले साधु के लिए वह कर्मबन्ध का कारण हो सकता है, क्योंकि वहीं (उस मकान में ही) गृहस्थ अपने स्वयं के लिए पहले नाना प्रकार के काष्ठ-ईंधन को काटेगा, उसके पश्चात् वह साधु के लिये भी विभिन्न प्रकार के ईन्धन को काटेगा, खरीदेगा या किसी से उधार लेगा और काष्ठ (अरणि) से काष्ठ का घर्षण करके अग्निकाय को उज्ज्वलित एवं प्रज्वलित करेगा। ऐसी स्थिति में सम्भव है वह साधु भी गृहस्थ की तरह शीत निवारणार्थ अग्नि का आताप और प्रताप लेना चाहेगा तथा उसमें आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा।
__ इसीलिए तीर्थंकर भगवान् ने पहले से ही भिक्षु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के (गृहस्थ संसक्त) उपाश्रय में स्थान आदि कार्य न करे। १. पुव्वोवदिठ्ठा के बाद '४' का चिह्न सूत्र ३५७ के अनुसार यहाँ से ' उवएसे' तक के पाठ का सूचक है।