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________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ४१५ तो ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, शय्यासंस्तारक एवं स्वाध्याय न करे । [२] वह साधु या साध्वी यदि ऐसा उपाश्रय जाने; जो कि बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, दरिद्रों एवं भिखमंगों के खास उद्देश्य से बनाया तथा खरीदा आदि गया है, ऐसा उपाश्रय अपुरुषान्तरकृत आदि हो, अनासेवित हो तो, ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, शय्यासंस्तारक या स्वाध्याय न करे। इसके विपरीत यदि ऐसा उपाश्रय जाने, जो श्रमणादि को गिन-गिन कर या उनके उद्देश्य से बनाया आदि गया हो, किन्तु वह पुरुषान्तरकृत है, उसके मालिक द्वारा अधिकृत है, परिभुक्त तथा आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके उसमें यतनापूर्वक कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करे । विवेचन- - उपाश्रय - निर्वाचन का द्वितीय विवेक प्रस्तुत दो सूत्रों में उपाश्रय - निर्वाचन का द्वितीय विवेक बताया है । इनमें मुख्ययता चार बातों की ओर विशेष रूप से ध्यान खींचा गया है - ११९ (१) जो उपाश्रय एक या अनेक निर्ग्रन्थ साधर्मिक साधु-साध्वियों के लिए बनाया, खरीदा आदि गया हो । (२) जो उपाश्रय सर्वसाधारण भिक्षाचरों (जिनमें निर्ग्रन्थ श्रमण भी आ जाते हैं) की गिनती करके या उनके निमित्त बनाया, खरीदा आदि गया हो । (३) किन्तु इन दोनों प्रकार के उपाश्रयों में से प्रथम प्रकार के उपाश्रय के सम्बन्ध में पुरुषान्तरअपुरुषान्तरकृत, अधिकृत - अनधिकृत, स्थापित - अस्थापित, परिभुक्त- अपरिभुक्त या आसेवितअनासेवित का कोई पता न हो तथा दूसरे प्रकार के उपाश्रय अपुरुषान्तरकृत आदि हों तो ऐसे उपाश्रयों में कायोत्सर्गादि क्रिया न करे । (४) यदि पूर्वोक्त दोनों प्रकार के उपाश्रयों के सम्बन्ध पक्का पता लग जाए कि वे पुरुषान्तरकृत हैं, अलग से स्थापित नहीं हैं, दाता द्वारा अधिकृत, परिभुक्त या आसेवित हैं, तो ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्गादि क्रिया करे । १ ओद्देशिक उद्गमादि दोषों से बचने के लिए ही शास्त्रकार ने ऐसा विधान किया है। उपाश्रय- एषणा [ तृतीय विवेक ] ४१५. से भिक्खूवा २ से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा - अस्संजए भिक्खुपडियाए कड १. टीका पत्र ३६० के आधार पर २. 'कडिए' इत्यादि पाठ की व्याख्या देखिए वृहत्कल्पभाष्य गा० ५८३ और निशीथभाष्य २०४७ में - कडितो पासेहिं, ओकंबितो उवरिं उल्लवितो, छत्तो उवरि चेव, लेत्तो कुड्डाए, ते उत्तरगुणा मूलगुणे उवहणंति। घट्टा - विसमा समीकता, मुट्ठा - • माइंता, समट्ठा - पमज्जिता, संपधूविता - दुग्गंण सुगंधीकता। वसंग कडणोक्कंबण छावण लेवण दुवारभूमी य। सप्परिकम्मा सेज्जा (वसही) एसा मूलोत्तरगुणेसु ॥' अर्थात्— कडितो— चटाइयों आदि के द्वारा चारों और से अच्छादित या सुसंस्कृत करना, ओकम्बितों -
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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