SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध अग्राह्य लवण-परिभोग-परिष्ठापन विधि ४०५. से भिक्खू वा २ जाव समाणे सिया से परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहए बिलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं परियाभाएत्ता णीहट्ट दलएजा। तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिजं जाव णो पडिगाहेजा। सेयआहच्च पडिग्गाहिते सिया,तंचणातिदूरगते जाणेजा,सेत्तमायाए तत्थ गच्छेजा, २ [त्ता] पुव्वामेव आलोएजा-आउसो ति वा भइणी ति वा इमं किं ते जाणता दिण्णं उदाहु अजाणता? से य भणेजा - णो खलु मे जाणता दिण्णं, अजाणता; कामं खलु आउसो! इदाणिं णिसिरामि, तं भुंजह वणं परियाभाएह वणं।तं परेहिं समणुण्णायंसमणुसटुं ततो संजतामेव भुंजेज वा पिएज वा। जं च णो संचाएति भोत्तए वा पायए वा, साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया तेसिं अणुप्पदातव्वं सिया। णो जत्थ साहम्मिया सिया जहेव बहुपरियावण्णे कीरति तहेव कायव्वं सिया। ४०५. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुए साधु या साध्वी को यदि गृहस्थ बीमार साधु के लिए खांड आदि की याचना करने पर अपने घर के भीतर रखे हुए बर्तन में से बिड-लवण या उद्भिज-लवण को विभक्त करके उसमें से कुछ अंश निकाल कर, बाहर लाकर देने लगे तो वैसे लवण को जब वह गृहस्थ के पात्र में या हाथ में हो तभी उसे अप्रासुक, अनेषणीय समझ कर लेने से मना कर दे। कदाचित् सहसा उस अचित्त नमक को ग्रहण कर लिया हो, तो मालूम होने पर वह गृहस्थ (दाता) यदि निकटवर्ती हो तो, लवणादि को लेकर वापिस उसके पास जाए। वहाँ जाकर पहले उसे वह नमक दिखलाए, कहे - आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या आयुष्मती बहन! तुमने मुझे यह लवण जानबूझ कर दिया है, या अनजाने में? यदि वह कहे - 'मैंने जानबूझ कर उक्त शब्दों का अर्थ स्पष्टत: ज्यों का त्यों- आज तक किसी भी आचार्य व विद्वान् आगमज्ञ ने मान्य नहीं किया। या तो इसे अपवाद सूत्र माना है या इन शब्दों का अर्थ अनेक प्राचीन आयुर्वेदिक आदि ग्रन्थों के आधार पर - वनस्पतिपरक स्वीकार किया है।। हमारे विचार में अपवाद सूत्र मानने का भी कोई विशेष महत्त्व नहीं, क्योंकि श्रमण ऐसी पंचेन्द्रिय-हिंसाजन्य वस्तु को शरीर के बाह्य उपभोग में भी नहीं लेता। अत: उनका वनस्पतिअर्थ ही अधिक संगत लगता है। इसी सूत्र में -(अध्ययन १ सूत्र ४५) पंचेन्द्रिय शरीर तथा वनस्पति शरीर की समानधर्मिता स्पष्टतः बतायी है, अत: वनस्पति विशेष में गूदे, बीज, गुठली, कांटे आदि के कारण उनकी भी-पंचेन्द्रिय शरीर के विकार (मांस-हड्डी) आदि के साथ - तुलना की जा सकती है। भारत के अनेक प्रान्तों (बंगाल-बिहार-पंजाब) में आज भी मच्छ'"कुकडी' आदि शब्द वनस्पति विशेष के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। -सम्पादक
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy