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प्रथम अध्ययन : दशम उद्देशक : सूत्र ४०२-४०४
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आदि के काटने पर उस असह्य पीड़ा के उपशमनार्थ बाह्य परिभोग में, पसीना आदि होने से, ज्ञानादि में उपकारक होने से उपयोगी देखा गया है। भुज् धातु यहाँ जूते के उपयोग की तरह बाह्य परिभोग के अर्थ में है, खाने के अर्थ में नही। १ निष्कर्ष यह है कि ये दोनों ही आचार्य मुनि के लिए इसे अभक्ष्य मानते हैं। दशवैकालिकसूत्र (अ. ५) में भी इसी से मिलती-जुलती दो गाथाएं हैं -
बहु अट्ठियं पुग्गलं अणिमिसं वा बहुकंटय। अस्थियं तिंदुयं बिल्लं उच्छृखंडं व सिंबलिं॥७३॥ अप्पेसिया भोयणजाए, बहु-उज्झियधम्मिए।
देंतियं पडिआइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥७४॥ दोनों का अर्थ स्पष्ट है। दशवैकालिकसूत्र के कुछ व्याख्याकारों ने मांस-मत्स्य शब्दों का लोक-प्रसिद्ध मांसमत्स्यपरक और कइयों ने वनस्पतिपरक अर्थ किया है। इस सूत्र के चूर्णिकार इस गाथा का अर्थ मांस (पुद्गल) मत्स्य (अनिमिष) परक करते हैं, वे कहते हैं - साधु को मांस खाना नहीं कल्पता, फिर भी किसी देश, काल और परिस्थिति की अपेक्षा से इस आपवादिक सूत्र की रचना हुई। इस सूत्र के टीकाकार हरिभद्रसूरि मांस-परक अर्थ के सिवाय वनस्पतिपरक अर्थ मतान्तर द्वारा स्वीकार करते हैं। ३ प्रसिद्ध टब्बाकार पार्श्वचन्द्रसूरि ने मूलतः ही वनस्पतिपरक अर्थ किया है। इसलिए पुद्गल या मांस का अर्थप्राणिविकार, कलेवर, फल या उसका गूदा, इनमें से कोई हो सकता है। अनिमिष और मत्स्य भी मत्स्य तथा वनस्पति -दोनों का वाचक हो सकता है। इस प्रकरण का समग्र अनुशीलन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि 'मंस-मच्छ' शब्द व्यर्थक -दो अर्थवाले हैं। व्यर्थक शब्द का आशय समझने के लिए वक्ता का (१) सिद्धान्त (२) व्यवहार और उसकी (३) अर्थ-परम्परा पर विचार करना चाहिए। अगर मात्र शब्द को पकड़कर उसका लोक-प्रचलित अर्थ कर दिया जाये तो वक्ता के मूल सिद्धान्त के साथ अन्याय होगा। आगम के वक्ता (अर्थोपदेष्टा) सर्वज्ञ प्रभु, महावीर परम अहिंसावादी व परम कारुणिक थे। उन्होंने मद्य, मत्स्य, मांस जैसे जुगुप्सनीय पदार्थों के सेवन का स्थान-स्थान पर निषेध किया है, न केवल निषेध, बल्कि इनका सेवन नरक आदि घोर दुर्गति का कारण बताया है। भगवान् महावीर ने अपने जीवन-व्यवहार में, या किसी भी गणधर आदि ने कभी इस प्रकार के पदार्थों को ग्रहण
नहीं किया। बल्कि आधाकर्म दोष की तरह मांसादि भोजन को मूलत: अशुद्ध मानकर उसका परिहार किया है। १. 'एवं मांस सूत्रमपि नेयम्। अस्य चोपादानं क्वचिल्लताद्यपशमनार्थ- सत्वैद्योपदेशतो बाह्यरिभोगेन
स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात् - फलवद् दृष्टम्। भुजिश्चात्र बहिपरिभोगार्थो नाभ्यवहारार्थो पदातिभोगवदिति।
-आचा० वृत्ति पत्रांक ३५४ २. (क) मंसं व णेव कप्पति साहूणं, कंचि देसं कालं पडुच्च इमं सुत्तमागतं।
-दसवै० जिनदास चूर्णि, पृष्ठ १८४ (ख) मंसातीण अग्गहणे सति, देसकालगिलाणावेक्खमिवमववात सत्तं।
-दसवै० अगस्त्यसिंह चूर्णि पृ० ११८ ३. 'बह्वस्थि' 'पुद्गलं' - मांसम्, 'अनिमिषं' मत्स्यं वा ' बहुकष्टकम्' अयं किल कालाद्यपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः अन्ये त्वभिदधति-वनस्पत्यधिकारात्तथा विधफलाभिधाने एते।
- हारि० टीका पत्र १७६